सोमवार, 23 अप्रैल 2012

महिला प्रतीक चिह्न – दासता के परिचायक या भावनात्मक समर्पण की पहचान ?






महिला, औरत या स्त्री.. चाहे जो भी नाम ले लें मगर औरत की भूमिका हमारे समाज में हमेशा से अग्रणी रही है और रहेगी,
बिना नारी के ये दुनिया अगर चल भी जाये तो इसमें नीरसता, भावना शुन्यता, अंधकार जैसे भाव ही बचे रहेंगे..
क्यूँ कि हमे इस दुनिया में लाने वाली ही हमारी मां सबसे पहले एक औरत है, और हम अपने देश या भूमि को भी स्त्री का ही दर्जा देते हैं,
क्यूँ? पुरुष का दर्जा क्यूँ नहीं दिया गया ? इसलिए क्यूँ कि औरत को ऊपरवाले ने एक विशेष गुण के साथ भेजा है और वो है सहनशीलता..
जो कि हम पुरुषों  में उनसे कम ही पाई जाती है, धरती ने जितना बोझ उठाया है हम सबका वो इसी सहनशीलता कि निशानी है तभी तो इसे 
हम धरती मां के रूप में स्वीकारते हैं और देश को भी भारत मां कहते हैं. साथ ही हम दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी मां के रूप में औरत को शक्ति 
का रूप भी मानते हैं. इतना कुछ होने के बावजूद हमारे समाज क्या पूरी दुनिया में पुरुषों को ही औरत से ऊपर रखा गया है.
इसके कई कारण हैं, मगर इस से ये सिद्ध  नहीं हो जाता कि पुरुष श्रेष्ठ है तो औरत निम्न है, अब किसी को अपनी दोनों आँखों में से कौन सी श्रेष्ट और 
कौन सी निम्न लगेगी कुछ इसी तरह का विवादित और मूर्खतापूर्ण सवाल है ये मेरी नजर में, जिसका मकसद सिर्फ विवाद और झगडा उत्पन्न करना है.
अब आते हैं समाज कि बनायीं व्यवस्था पर, तो क्या आपने कभी भी ये सुना है कि किसी लड़की ने किसी लड़के का बलात्कार कर दिया?
पहले मेरी पूरी बात सुन लीजिये फिर इस बात का मुख्य विषय से जुड़ाव भी समझ में आ जायेगा?
मुझे लगता है कि किसी ने नहीं सुना होगा.. क्यूँ नहीं सुना? क्यूँ कि लड़के ही सबसे ज्यादा लड़कियों को छेड़ते हैं और इसी कोशिश में रहते हैं कि उनके साथ
संसर्ग स्थापित किया जा सके, और अब तो समाज में इस तरह कि घटनाओं पर बाढ़ सी आ गयी है ऐसा आप भी रोजाना के ख़बरों में पढ़ या देख कर जानते ही होंगे.
बस एक यही ठोस कारण लगता है मुझे औरत को घर कि दहलीज में रखने का, क्यूँ कि हम सबके घर की औरतों को घर के बाहर खतरा होता है इस तरह का तभी उनको 
घर के अन्दर के काम काज सौंपे गए, बहार के कामों को पुरुषों ने हर्ष पूर्वक स्वीकार कर लिया. औरतों ने रसोई और परिवार की देखभाल को बखूबी अंजाम दिया.
पुरुष काम करके धन अर्जित करने लगा और स्त्रियों ने घर को संभाला उनके बच्चों का लालन पालन किया साथ ही उसे फिर से काम पर भेजने लायक शक्ति देने के लिए
अच्छा भोजन बना कर दिया. ये व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही थी कि तभी हमारे समाज में एक क्रांति आई अस्सी के दशक में टेलीविजन के रूप में, जिसने यहाँ के लोगों को
पूरी दुनिया के बारे में बताया, फिर इन्टरनेट और मोबाइल क्रांति इस से भी तेज गति से हमारे समाज को प्रभावित करती गयी, और हम पश्चिमी सभ्यता कि देखा देखी खुद को काफी
पिछड़ा और असहाय  महसूस  करने लगे. ये हीन भावना ही हमारे समाज में बिखराव के बीज बोटा गया और हम भी स्त्री पुरुष में सर्वश्रेष्ठता  कि जंग में कूद गए, 
ये नहीं देखा कि पश्चिमी सभ्यता कैसी है और वहाँ कैसा क़ानून और कैसा चलन है बस कूद गए बिना देखे सुने और समझे..
जरुरी नहीं कि एक ही क़ानून किसी भी देश, काल या धर्म में अच्छा या बुरा हो, जो चीज यहाँ अच्छी है जरुरी नहीं कि पूरी दुनिया में वो अच्छी हो,
और हमने एक ऐसा जंग का मैदान खड़ा कर दिया जिसमे स्त्री समाज अलग और पुरुष समाज अलग खड़ा है, 
जंग किस बात की है? ये किसी को नहीं पाता, बस एक दुसरे से श्रेष्ट कहलाने कि होड़ सी है..
पश्चिम में तो उनके बच्चे कोलेज में जाने से पहले ही घर छोड़ देते हैं और खुद का जीवनसाथी चुन कर उसके साथ बिना शादी के एक दम्पति की तरह रहने लगते हैं,
मदिरा सेवन वहाँ के मौसम के हिसाब से जरुरी है, वहाँ तलाक ज्यादा होते हैं, एक चुटकुला याद आ गया आप भी सुन कर वहां की स्थिति से थोडा अवगत हो सकते हैं.
डेविड को उसकी पत्नी ने फ़ोन किया -"सुनो, हमारे घर में कोहराम मचा हुआ है."
डेविड-"क्यूँ क्या हुआ?"
पत्नी ने कहा-"तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे मिल कर हम दोनों के बच्चों को मार रहे हैं जल्दी घर आ जाओ.."
तो क्या आप भी ऐसी ही व्यवस्था अपने घर में भी चाहते हैं?
नही तो फिर ये पश्चिमी सभ्यता के पीछे क्यूँ भागना?
सीखना ही है तो किसी ने वहाँ के समय की पाबन्दी क्यूँ नहीं सीखी? वहां का यातायात नियम या साफ़ सफाई को क्यूँ नहीं अपनाया? सिर्फ बुराई ही अपनाने में आगे रहेंगे क्या हम लोग?
और रही बात हमारे भारतीय स्त्रियों के प्रतीक चिन्हों की तो वो मेरी नज़र में बेहद अहम् भी है, और अगर इसे नारी समाज नहीं मानता तो फिर पूरी तरह से न माने, ये मैं अपनी बात में आगे विस्तार से समझाऊंगा..
हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों का प्रतिक चिन्ह सिन्दूर, मंगलसूत्र, चूड़ी, बिछिया, आलता (महावर),नथनी, बाले आदि स्त्रियों की वेशभूषा में शामिल हैं और ये स्त्रियों की सुन्दरता को बढ़ाते भी हैं साथ ही सिंदूर व मंगलसूत्र जैसे चिन्ह उनके शादी शुदा होने की निशानी भी होते हैं.
मुझे इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती कि उनको ये चिन्ह शादी शुदा होने के तौर पर पहनाये गए हैं, अब औरतों का एक हाई प्रोफाइल तबका इन सबको औरतों कि दासता का प्रतीक चिन्ह मानता है,
भला ये साज सिंगर कि चीजें किसी कि दासता से कैसे सम्बंधित हो सकती है? मेरे दिमाग में ये बात नहीं घुसती, हाँ, इतना जरुर है कि उनकी इस बात में दम नज़र आता है कि अगर औरतों को ऐसे
प्रतीक पहनाये गए तो पुरुषों को क्यूँ नहीं? पहले के समय में औरतों को शादीशुदा होने पर कोई और मर्द हाथ भी नहीं लगाता था ऐसा सुना है, एक कोई फिल्म भी देखा था मैंने जिसमे एक कुंवारी लड़की घर से बाहर काम काज करने निकलती है तो उसे हर जगर घूरती आँखें और छेड़खानी का शिकार होना पड़ता था,  एक दिन उसे पाता चला कि गले में मंगलसूत्र पहना देख कर लोग शादी शुदा समझ कर नहीं छेड़ते तो उसने भी बाज़ार से एक मंगलसूत्र खरीद कर खुद ही पहन लिया और सच में फिर उसे कोई नहीं छेड़ता था.. ये तो थी पहले कि बातें मगर आज के समय में इसकी कोई गारंटी नहीं रही.. 
रही बात पुरुषों की तो वो तो उनका ये तर्क होता है की जब पुरुष एक ही बीवी से इतना तंग रहता है दूसरी के चक्कर में पड़ेगा तो जी पायेगा क्या? ये तो बात को मजाकिया अंदाज में टालने वाली बात हो गयी मगर पुरुषों को कौन छेड़ेगी ? और अगर छेड़ भी दिया तो वो क्यूँ मना करने लगा ? पुरुष वैसे भी ज्यादा ही कामुक और उतावला रहता है और अगर उसके साथ जबरदस्ती किसी लड़की ने कर भी दी तो कौन उसका विश्वास कर लेगा और कौन सा थानेदार उसकी रिपोर्ट दर्ज करेगा? वैसे भी औरतों को ज्यादा शौक होता है सजने सवारने का, अब कुछ नवजवानों को भी ऐसा शौक हो चूका है और वो भी स्त्री पुरुषों के पहनावे के अंतर को कम करने में सहयोगी भूमिका निभाए जा रहे हैं.
और ये मेरा कटाक्ष नहीं है जो कोई स्त्री इसका बुरा मान जाये, मई उन्ही पहलुओं के बारे में लिख रहा हूँ जो ज्यादातर हमारे समाज में व्याप्त है, और ऐसा तो हरगिज नहीं हो सकता कि किसी भी बात का कोई अपवाद न हो, ये जरुर होता है कि हमे उसकी जानकारी नहीं होती. अतः नारी समाज इसे अन्यथा न ले कि उसे सजने सँवारने में पुरुषों से ज्यादा वक़्त लगता है, नारी सजती संवारती किसके लिए है? पुरुषों को दिखाने के लिए ही ज्यादातर जवाब होंगे लोगों के.. तो आज के युग में अगर लड़कियां सेक्सी कमेन्ट सुनना पसंद करती हैं और इसके लिए इतने कम और तंग कपडे पहनती हैं कि लड़कों का खुद पर काबू नहीं रहता तो इसमें क्या सिर्फ मर्द समाज ही दोषी है औरतें नहीं? मैं कारण कि तरफ आपका ध्यान दिखाना चाहता हूँ न कि ऐसे लड़कों कि तरफदारी कर रहा हूँ, कानून तोड़ने वाला कोई भी हो वो समाज में असंतुलन और अराजकता ही फैलता है और जाने कितनी लड़कियों कि पढाई इसी छेड़खानी की वजह से बंद हो गयी.. 
एक रेडियो उदघोषिका  को मैंने कहते सुना था कि हम लड़कियों को भी अपने मन पसंद के कपडे पहनने का हक़ है, हक़ सभी को है मगर यदि आप समाज में बहार निकलते हुए अपनी मर्यादा लांघ रहे हैं तो इसके परिणाम के लिए पूरे मर्द समाज को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित है जब कि उसके मूल में कारण तो ऐसी लड़कियों के जिस्म दिखाऊ कपडे ही होते हैं. ऐसी लड़कियां फिल्मों से सिर्फ और सिर्फ फैशन कि शिक्षा ही लेकर आती हैं और वही अपनाने कि कोशिश करती हैं, फिल्म किस देश को केन्द्रित करके लिखी गयी इन सबसे उनको कोई लेना देना नहीं होता..
और औरतों को अगर सिंदूर, मंगलसूत्र, चूड़ी दासता का परिचायक लग रही है तो फिर उसे सोने चाँदी और हीरे मोतियों से जड़े जेवरात भी तो नहीं पहनने चाहिए..
ये तो अपने पति या प्रेमी को रिझाने के लिए उसने स्वीकार किया है, एक पुराना गीत याद आ रहा है --"सजना है मुझे सजना के लिए, ज़रा उलझी लटें संवर लूँ, हर अंग का रंग निखार लूँ की सजना है मुझे सजना के लिए.." इस गीत में एक नारी के मानसिक भावों को दर्शाया गया है कि कैसे वो काम से वापस लौटते हुए अपने शौहर को प्यार के बंधन में रिझा कर बंधने के लिए खुद को संवर रही है.. और यही हमारे समाज कि सच्चाई भी है कि औरतों का साज श्रंगार मर्दों के लिए ही होता है. उनका जीवनसाथी किसी और नारी कि तारीफ ना करे इसलिए वो खुद को उसकी नजरों में सुन्दरतम दिखाने के लिए घंटों बैठ कर मेहनत करती है  अपने रूप को निखारने में..
और मुझे तो विश्वास है कि किसी को भी प्यार से ही हासिल किया जा सकता है, जोर जबरदस्ती से सिर्फ छद्म प्यार ही हासिल हो सकता है और कुछ नहीं.. 
ये महिला प्रतीक चिन्हों के विषय से पूरी तरह जुदा नहीं था तो अलग भी नहीं था क्यूँ कि अगर हम समाज में बिगड़ते व्यवस्था कि बाते करेंगे तो उसके कारण और परिणाम पर भी बहस  जरुरी हो जाती है. और फिर आजकल कि लड़कियों ने तो लड़कों के बोलचाल को भी अपना लिया है मैं चाह कर भी ऐसे शब्दों को यहाँ पर नहीं लिख सकता, मगर ये तो देखना ही होगा न कि अगर समाज में बदलाव आ रहा है तो इसका आगे और क्या दुष्परिणाम हो सकता है? जरुरी नहीं कि इन लड़कियों को ऐसी बातों का असली अर्थ पता भी हो, लेकिन बस वो कहती हैं और लड़कों कि बोलचाल कि बराबरी करने के लिए उनके मुंह से अश्लील भाषा भी निकल रही है इस से वो अनजान हैं. जैसे एक दो आधुनिक मुहावरों पर अगर नज़र डालें तो इसमें औरतों को खरबूजा या म्यान की तरह बताया गया है और इसके अर्थ कई मायनों में तो होते ही हैं साथ ही अश्लीलता वाले अर्थ भी होते हैं. जैसे ये आपने भी सुना होगा कि खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर काटना तो खरबूजे को ही है, या औरत तलवार और मर्द उसकी म्यान की तरह होता है, दोनों को पानी में डुबाने पर  म्यान तो पूरी भर जाती है लेकिन तलवार में सिर्फ कुछ बूंदें ही टपकती हैं..
इसी तरह कहीं मैंने सुना था कि धरती पर सिर्फ दो ही अनाज ज्यादा प्रचलित हैं गेहूं और चावल, इसमें चावल को मर्दों की निशानी और गेहूं को औरतों की निशानी के तौर पर बताया गया था बनावट के आधार पर..
इसी तरह मर्दों को पेड़ जबकि औरतों को लता या बेलरूपी  पौधों के रूप में नारी समाज ने भी स्वीकार है.. अब अगर कुछ तथाकथित नारी समाज की हिमायती नारियों ने संगठन बनाकर औरतों को भी स्वक्च्छंद  बनाने के लिए उसके अधिकारों की लडाई के नाम पर उन्हें घर से निकलने और अपना हक़ दिलाने के नाम पर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए नारी और पुरुष के बीच में खायी बना डाली है तो ये हमारे समाज के लिए घटक है और इस से सिर्फ और सिर्फ पारिवारिक विघटन ही फैलेगा, जिसे काम करना है उनको आप जरुर अधिकार दिलाएं मगर जो घर पर रह रही हैं उनको वहीँ रहने दें और घर पर अगर कोई समस्या आ रही है तो उसे दूर करें न की पुरुषों के खिलाफ जहर भरकर उनको बाद में एकाकी जीवन जीने पर मजबूर कर दें, और अगर औरत अकेली रहकर कहीं काम भी करती है तो भी उसे किसी न किसी रूप में पुरुष के सहयोग की आवश्यकता पड़ती ही है और यही हालत पुरुष समाज की भी है.. ये दोनों एक दुसरे के पूरक हैं ना कि प्रतिद्वंदी.
और अगर आप नारी को भी हर मामले में श्रेष्ट मानती हैं तो हर महीने के चार पांच दिन वो क्यूँ असहाए सी हो जाती है? क्यूँ उस पीरियड में वो फ़ौज कि भारती में दौड़ नहीं पति? क्यूँ नहीं आज तक उनको आपने अलग से परीक्षा देने का अधिकार दिलाया जब वो मासिक से ना गुजर रही हों? ये सवाल मेरे ही दिमाग में क्यूँ आया आप नारी समाज का ठेका लेकर हिमायती हैं तो इस दिशा में अब तक कुछ ना कुछ जरुर पहल हो चुकी होती, मैंने तो आज तक ऐसे किसी भी विषय पर जिक्र तक नहीं सुना. अगर नारी समाज को अधिकार दिलाना ही है तो सबसे पहले उनको इस धरती पर तो आने दीजिये, भ्रूण हत्या के लिए समाज को जाग्रत करने की सख्त जरुरत है, क्यूँ कि मुझे तो लगता है कि दस पंद्रह साल बाद विवाह के लिए लड़कियां इतनी कम पड़ने लगेंगी कि या तो बालविवाह की फिर से शुरुआत हो जाएगी या किसी अन्य देश की लड़कियों को भारत में बहू बनाकर लाया जायेगा.. और जब औरतें ही कम रह जाएँगी तो शादी उनकी मर्जी से होगी  और दहेज़ मर्द देंगे, वरना वो खोजते रहें अपनी पसंद की लड़की और आजन्म कुंवारे बैठे रहें, ये किसकी देन है? क्या पुरुषों से ज्यादा माँ या सास रूपी स्त्री इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? जो एक नारी है?
और सिर्फ दहेज़ की रकम ना दे पाने की अक्षमता ही बेटों की चाह का कारण नहीं है, समाज में बढ़ते अपराध और औरतों की असुरक्षा भी इसमें शामिल है, कोई भी माँ बाप ये नहीं चाहता कि कल को 
उनकी बेटी को कोई सड़कछाप मजनू छेड़े और बाद में बात मार पीट तक पहुँच जाये, ऐसे में वो खुद को बुढ़ापे में असहाए और सिर्फ बेटियों का बाप ही कहलाना पसंद नहीं करना चाहता, 
तो ऐसे में जरुरत है कि सबसे पहले औरतों को कमतर समझना या ऐसा उनको एहसास दिलाना बंद किया जाये, फिर धीरे-२ समाज में परिवर्तन की धारा बहाई जाये, जिस से नारी पुरुष का असंतुलन संतुलित हो सके, बढ़ते पारिवारिक विघटन कम हों, कानून में परिवर्तन हो और वो आज के समाज को नियंत्रित करने लायक बने.
ये बात ही क्यूँ उठी जबकि ऐसा कुछ मर्दों के अन्दर नहीं था, और जो नारी या पुरुष खुद को श्रेष्ठ साबित करने में व्यर्थ ही उलझे पड़े हैं उनको पड़े रहने दीजिये, ऐसे तो जाने कितने ही विषय हैं और कितनी बातें कि सभी खुद को श्रेष्ठ साबित करने में लगे हैं.. 
जाते जाते सी विषय को भी खोलता ही चलूँ, 
आदम और हव्वा के दुनिया को आबाद करने के बाद भारत में आये आर्यों में से ऋषि मनु जी ने आज कि जाती व्यवस्था को जन्म दिया ताकि लोग किसी भी काम को अगर पीढ़ी दर पीढ़ी करेंगे  तो वो उस कार्य को करने में महारत हासिल कर लेंगे क्यूंकि पीढ़े दर पीढ़ी उनका परिवार उस कार्य की बारीकियों और नफे नुक्सान से अवगत हो चूका होगा.. उन्होंने उस समय के समाज को चार वर्णों में बांटकर उनको अलग अलग कार्य सौंप दिया, ब्राह्मण को  शिक्षा, पूजा पाठ जैसे कार्य सौंपे गये, क्षत्रिय को देश की रक्षा के लिए तलवार थमा दी गयी, वैश्य को व्यापर और शुद्र को सफाई का काम सौंपा गया.. ये तो उन्होंने बनाया था की समाज व्यवस्थित हो सके और यहाँ पर हर कार्य का निपुण महारथी मौजूद हो, मगर हमने किया इसका उल्टा, हमने स्त्री पुरुष के जंग की तरह ही इसमें भी श्रेष्ट की जंग छेड़ दी, ब्रह्मण खुद को श्रेष्ट कहने लगा तो बाद में ब्राह्मणों में भी कई बंटवारे हो गए और इनमे भी निम्न कोटि के ब्राह्मण व उच्च कोटि के ब्राह्मण हो गए, इसी तरह बाकि के तीनो जातियों में भी हुआ, आज दशा ये है कि ना तो धोबी जाति वाले कपडे धोने में लगे हैं और ना ब्रह्मण पूजा पाठ में, तो ऐसे में जब हम अपने कार्यों से ही विमुख हो गए हैं तो जरियों का औचित्य ही नहीं रह गया वर्तमान समाज में. मुस्लिम भाइयों में भी सिया और सुन्नी का बंटवारा हो गया तो ईसाई भाई भी दो भागों में बनते हुए हैं और जो धर्म के आधार पर नहीं बनते वो गोरे और काले के रंग में बाँट गए.. इन सबका परिणाम क्या है? जंग और खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दुसरे को नीचा दिखाना.. 
तो ऐसे लोग जो इस तरह कि श्रेष्ठता को उचित मानते हैं मेरा एक सलाह जरुर अपनाये कि अब से वो अपनी एक आँख ना खोला करें जिसे वो निम्न वर्ग का समझते हैं, साथ ही एक हाथ, एक कान, एक पैर भी त्याग दें, क्यूँ कि अगर उनका यही मानना है तो पहले खुद में ये श्रेष्ठता साबित करें उसके बाद दुनिया को समझाने निकलें.
मेरी आदत है कि किसी विषय के हर पहलु को ध्यान में रख कर लोगों तक अपनी बात पंहुचाना, इसमें कहाँ तक सफल हुआ हूँ ये तो आपसबकी प्रतिक्रिया ही बताएगी..
अगर कुछ ज्यादा बोल गया या किसी के ह्रदय को ठेस लगी हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ.


--गोपाल के. 

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