1913 में भारत में पहली फिल्म ''राजा हरिश्चंद्र'' प्रदर्शित हुयी थी,
जिसे डी. जी. फाल्के ने निर्देशित किया था और इसमें डी.डी.दबके, सालुंके,
भालचंद्र फाल्के आदि ने भूमिका निभाई थी.
उस ज़माने में बोलती फिल्मों का जन्म नहीं हुआ था और ये शैशवावस्था में
अपने आज के चकाचौंध भरे स्वरुप को अपने आसपास कहीं भी नहीं देख पा रही थी..
ये वो जमाना था जब अभिनेत्री की भूमिका भी मर्दों को ही निभाना पड़ता था.
तमाम परेशानियों के बीच किसी तरह खुद का विकास करते हुए लोगों का मनोरंजन
करके खुद को स्थापित करने की कोशिश कर रहा था..
उस जमाने में फिल्मों को अच्छे घर की लड़कियों का काम नहीं माना जाता था तो शुरू में कुछ
तवायफों को भी अभिनेत्री की भूमिका करने का मौका दिया गया..
अंग्रेजों का राज होने की वजह से उस वक़्त की फिल्मों में अंग्रेजी का असर भी देखा जा सकता था.
तब लोग बस यही देखने टाकीजों में जाते थे की वहां उन्हें बोलती हुयी तस्वीरें दिखाई देंगी,
जो उस ज़माने में बहुत ही कौतूहल का विषय हुआ करता था.
राजा सैंडो, हिमांशु राय, गौहर, इ. बिलिमोरिया, सुलोचना और कपूर खानदान के
पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकार उस वक़्त लोगों का मनोरंजन कर रहे थे.
फिर 1931 में जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो फिर फिल्म इंडस्ट्री ने सही रफ़्तार पकडनी शुरू की,
क्यूँ कि भारतीय सिनेमा गीत-संगीत के बिना अधूरी है, और मूक फिल्मों के बाद अब लोगों को कहानी के साथ ही
नए तरह के गीतों का भी शौक चढ़ने लगा..
"आलमआरा" फिल्म इतिहास कि पहली बोलती फिल्म बनी और इसको निर्देशित करने वाले अर्देशिर ईरानी के साथ ही
इस फिल्म के मास्टर विट्ठल, जुबेदा, पृथ्वीराज आदि भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए. फिरोजशाह मिस्त्री और
बी. ईरानी ने इस फिल्म में पहला संगीत हिंदी फिल्म के लिए दिया था..हालांकि 1934 तक मूक फिल्मे बनती रही लेकिन
सिनेमा के एक नए रूप ने लोगों को आकर्षित करके अपनी तरफ खीचना शुरू कर दिया था.
उस वक़्त के. एल. सहगल साहेब के गीतों की ही बहार छाई हुयी थी, उनके बाद आये गायकी के तीन
महान दिग्गजों ने उनकी ही स्टाइल कॉपी करके खुद को स्थापित किया था और बाद में अपनी अलग
शैली में पहचान बनायीं. जी हाँ, मैं मो. रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार जी की बात कर रहा हूँ.
दादामुनि अशोक कुमार इंडस्ट्री में आये तो अपने साथ एक महान गायक, अभिनेता, निर्देशक किशोर कुमार के साथ-साथ
अपने तीसरे भाई अनूप कुमार को भी खंडवा से मुंबई का रास्ता दिखा दिया.
किशोरे जी के बचपन की एक बात याद आ गयी, एक बार शायद उनको कोई घाव या बीमारी हो गयी थी जिस से
वो इतने परेशां रहते थे की दिनभर जोर-2 से चिल्लाते हुए रोया करते थे, मुझे लगता है कि शायद इसी से उनका गला
विशेष हो गया था क्यूँ कि मैंने सुना है कि उन्होंने संगीत कि कोई भी शिक्षा नहीं ली थी.
पृथ्वीराज कपूर जी ने अपने तीनों बेटों राज कपूर- जो शोमैन के नाम से इंडस्ट्री में मशहूर हुए,
शम्मी कपूर- जिन्होंने अपने मस्ती भरे अंदाज़ से लोगो में अपनी अलग जगह बनायीं,
और शशि कपूर- जो भारत के साथ ही हॉलीवूड कि फिल्मों में भी अभिनय करके अपनी
पहचान बनायीं. राजकपूर जी के तीनों बेटों ने भी अपने दादा के काम को आगे बढाया.
रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं.
लेंकिन शशि कपूर के पुत्रों कुणाल कपूर और करण कपूर के साथ पुत्री संजना कपूर वो छाप छोड़ने में असफल रहे.
शायद उसका एक कारण उनकी मान जेनेफिर का विलायती होना रहा हो जिस से उनके तीनो बच्चों के चेहरे
भारतीयता से दूर नज़र आते थे. हो सकता है कि आज के दौर में वो बेहद सफल होते जब विदेशी बालाएँ यहाँ आकर
हिट फ़िल्में दे रही हैं. असल में तब के लोगों में सिर्फ भारतीय फिल्मों का ही एकमात्र शौक हुआ करता था और आज की
पीढ़ी हर जगह की बनी फ़िल्में देखना पसंद करती है. तभी तो अब हॉलीवूड की तरह यहाँ भी सिक्वेल फिल्मों का दौर शुरू हो चूका है,
खिलाडी, गोलमाल, हेराफेरी, क्या कूल हैं हम, मर्डर , धूम, जन्नत, हाउसफुल आदि इसका तजा उदाहरण हैं .
जबकि सन्नी देयोल ने नागिन की सिक्वेल निगाहें बनायीं तो वो बुरी तरह पिट गयी थी.
ये आजकल के बदलते दर्शकों के रुझान का ही परिणाम है जो सदा से परिवर्तन चाहता है.
और अब तो हालत ये है कि छोटे बजट की भेजा फ्राई, कहानी, पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्में
बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कलेक्शन कर ले जाती हैं. अब फ़ॉर्मूला फिल्मों का दौर नहीं रहा,
दर्शक कुछ नया देखना चाहते हैं और सिनेमा के बदलते स्वरुप को मॉल संस्कृति ने नयी राह पर
ला खड़ा किया है.
1930 से 1940 तक धार्मिक और सामाजिक फिल्मों का दौर रहा, फिर आज की ही तरह वर्तमान
समय की मांग पर फ़िल्में बनने लगी.सुरैया, मुबारक व शमशाद बेगम, लता मंगेशकर,
आशा भोंसले, हेमंत कुमार, मन्ना डे, सुमन कल्यानपुर जैसे दिग्गज जहां अपनी आवाज़ का जादू बिखेर रहे थे
वहीँ वी. शांताराम, सत्यजीत रे, महबूब खान आदि ने फिल्मों में नए प्रयोग किये.
नौशाद, मदन मोहन, सलिल चौधरी, रवि, लक्ष्मी कान्त-प्यारेलाल, एस.डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सी. रामचंद्र
आदि मधुर संगीत डे कर लोगों को झुमा रहे थे.. कविवर प्रदीप वहाँ भी देशभक्ति की अलख जगा रहे थे अपनी कलम से.
आजादी के दीवाने भला कहाँ रुकने वाले थे? उन्होंने सबसे अच्छा माध्यम फिल्मों को देखा और
"दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है.." के जरिये अहिंसात्मक तरीके से
अंग्रेजों भारत छोडो का नारा गुप्त तरीके से बुलंद किया.
फिर 1950 से 1965 -70 तक का समय संगीत का स्वर्णिम दौर कहा जा सकता है, उस दौर में ऐसे बेहतरीन
गीत संगीत बने जो आज तक तरोताजा हैं. फिर दौर आया डाकुओं पर aadharit फिल्मों का,
शोले ने ऐसा इतिहास रचा जो खुद में इतिहास बन गया. राजकपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेश खाना- जो पहले सुपर स्टार कहलाये,
मनोज कुमार-जो देशभक्त फिल्मों से जाने जाते हैं, राजकुमार, अमिताभ बच्चन-जो सदी के महानायक हैं, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र, सुनील दत्त,
सन्नी देयोल, अनिल कपूर संजय दत्त से होते हुए आज आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख़ खान, अक्षय कुमार, शहीद कपूर,
जान अब्राहम, ऋतिक रोशन, अभिषेक कपूर जैसे अभिनेताओं ने अभिनय की बागडोर संभल राखी है..
वहीँ अभिनेत्रियों में सुरैया, मधुबाला, नर्गिस, वहीदा रहमान, शर्मीला टैगोर, राखी, रेखा, हेमा मालिनी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, काजोल
जैसी तमाम अभिनेत्रियों की विरासत अब करीना कपूर, कटरीना कैफ, विद्या बालन, प्रियंका चोपड़ा, ऐश्वर्या राय आदि संभाल रही हैं..
यहाँ पर मैं बहुत सरे ऐसे नामों को नहीं लिख सका जो आपके पसंदीदा हैं, ये ऐसा लेख नहीं जिसमे सभी मशहूर फिल्म हस्तियों का नाम दिया जा सके
जो भी नाम गलती से रह गए हैं उसके लिए आप क्षमा करें. फिल्म इतिहास के सौ साल अगले साल होंगे तब जो लेख लिखूंगा उसमे उन सभी का जिक्र होगा
बस शर्त ये है कि आप बोर मत होना उतने सारे नामों और फिल्मों के बारे में पढ़ कर..
बीच में 1980 -1989 तक मिथुन दा वाला जमाना था जिसमे एक तरफ वो, गोविंदा जैसे डांसर के साथ फिल्मों में डांस करते नज़र आ रहे थे
वही दूसरी तरफ रजनीगंधा, गोलमाल जैसे छोटे बजट कि फिल्मो वाले अमोल पालेकर, या उमराव जान के फारुख शेख,
मंडी व मासूम के नसीरुद्दीन शाह, कला फिल्मों में भी अपनी छाप छोड़ रहे थे,
उस वक़्त का दौर शोरगुल वाले संगीत का हो गया था जिसे 1989 के बाद महेश भट्ट की "आशिकी" और
राजश्री वालों की "मैंने प्यार किया" ने मधुर संगीत के दौर को ला कर एक नए ही युग का आरम्भ किया..
इसके बाद हिमेश रेशमिया ने रिमिक्स संगीत का ऐसा जमा पहनाया कि उनके सैड सोंग भी रिमिक्स हो गए.
अब का जमाना बिलकुल ही अलग है और अब नयी तरह की प्रयोगधर्मी फ़िल्में बननी शुरू हो चुकी हैं
जिसमे मनोरंजन के साथ ही अच्छे सन्देश के साथ-साथ कुछ फिल्मों में इमरान हाश्मी द्वारा निभाई गयी ग्रे कलर की भूमिकाएं भी हैं,
यानी देखने वाला ये समझ ही नहीं पता कि ये हीरो है या विलेन?
मेरा सुझाव है कि फ़िल्मकार अगर खाने वाले पैकेट में मांसाहार में लाल निशान व
शाकाहारी के लिए हरे निशान का इस्तेमाल करते हैं इसी तरह वो भी जो फ़िल्मी पात्र दर्शकों के
अनुकरण योग्य हों उन्हें अलग निशान डे सकते हैं, लोगों को पता ही नहीं कि फिल्मों में क्या सीख दी जा रही है और क्या सिखाया जा रहा है,
वो तो ''धूम'' देखकर बैक के नए खतरनाक स्टंट करने लग जाते हैं, ''बंटी और बबली'' से ठगी या
अंधों द्वारा बैंक डकैती दिखाने पर डकैती सीख जाते हैं..
इसलिए इसमें भी कुछ अलग से मानदंड रखने पड़ेंगे वरना लोग सही शिक्षा की जगह गलत ही सीखते रहेंगे.
हाँ, तो ये था हल्का सा झरोखा फिल्म इतिहास का जो मैंने आपके समक्ष रखा..
थोड़ी बहुत जानकारी थी जो आप सबमे बांटना चाहता था , उम्मीद है की पसंद आया होगा.
जो भी हो आप अपने अमूल्य विचार पोस्ट कर के मुझे जरुर अवगत करवाएं जिस से आगे और बेहतर लिख सकूँ.
---गोपाल के.
सोमवार, 16 अप्रैल 2012
सिनेमा के सौ साल में परिवर्तन की धारा
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