गुरुवार, 26 अप्रैल 2012
आस्तिक बनाम नास्तिक और निर्मल बाबा
मेरे जेहन में बार-बार एक सवाल उठा करता है कि क्या चिकित्सक एवं वैज्ञानिक आस्तिक नहीं हो सकते? उन्हें क्यूँ ईश्वर की सत्ता पर विश्वास नहीं होता?
क्या ज्यादा ज्ञान प्राप्त हो जाने से हम ईश्वर को मानना ही बंद कर देते हैं या हमे ऐसा करने को बाध्य किया जाता है? या फिर हमारी इज्ज़त नहीं रहती अगर हम
इतना ज्यादा ज्ञान इन क्षेत्रों में प्राप्त कर लेते हैं और उसके बाद भी ईश्वर को मानते हैं?
फिलहाल कुछ चिकित्सकों को तो मैंने आस्तिक देखा है मगर वैज्ञानिक तो कोई नहीं.. क्यूंकि वो तो सबूतों पर विश्वास करते हैं और उन्हें जो नही दीखता उस पर कैसे विश्वास कर लें?
हाँ, उनके फार्मूले सही हैं मगर ऐसी तमाम बातें होती हैं जिनका हमारे पास कोई जवाब नहीं होता, जैसे मरे हुए इंसानों का पुनः जीवित हो जाना, इसे आस्तिक व्यक्ति तो ईश्वर की कृपा मानता है मगर वैज्ञानिक उसे कुछ और ही कहते हैं और चिकित्सक अपनी भूल बता कर पल्ला झाड लेते हैं.
आस्तिक और नास्तिक क्या है आइये इस पर जरा गौर करते हैं, 'आस्तिक' व 'नास्तिक' शब्दों की उत्पत्ति क्रमश: 'अस्ति', जिसका अर्थ 'होना' या 'है' व 'न अस्ति', जिसका तात्पर्य 'न होना' या 'नहीं', माना जाता है, जिसका अर्थ क्रमश: 'अस्तित्व' व 'न अस्तित्व' लिया जाता है.
यानी हम जिसे मानते हैं, जिसकी सत्ता को स्वीकारते हैं तो हम आस्तिक हुए और नहीं मानते तो नास्तिक. मगर आस्तिक नास्तिक की श्रेणी में और नास्तिक आस्तिक की श्रेणी में आते जाते रहते हैं, हम इंसान हैं ही इतने स्वार्थी कि अगर हमारे काम नहीं बन रहे होते हैं और हम इसके लिए हर मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारे में माथे टेक चुके होते हैं तो हम अपने विश्वास को बार-बार परिक्षण करने लगते हैं और कहते हैं कि हे ईश्वर अगर तुमने मेरा ये काम नहीं किया तो मैं आज से तुम्हे मानना ही बंद कर दूंगा, तो बंद कर दो ना, इसमें तुमने सिर्फ अपनी नाराजगी जताई है ईश्वर से कि मैं तो जानबूझ कर तुम्हारी सत्ता को स्वीकारना बंद कर रहा हूँ, यानि मानते हुए भी नाराजगी कि वजह से ना मानना.. मैं ऐसे लोगों को नास्तिक नहीं मानता.. नास्तिक तो वो होते हैं जो ईश्वर को सिरे से नकार जाते हैं और प्रकृति या ब्रम्हांड को ही जीव कि उत्पत्ति का कारक मानते हैं, अब उनसे अगर कोई ये कहे कि इस ब्रम्हांड को और प्रकृति या सूरज, चाँद, धरती सभी को तो ईश्वर ने ही बनाया है तो भी वे इसे नहीं मानेंगे, ऐसे लोग तर्क-वितर्क करना पसंद करेंगे और अपनी हार नहीं मानेंगे.. कोई ना कोई बहाना कर के वो ईश्वर को लोगो का भ्रम या अन्धविश्वास ही कहेंगे. अगर आप जीतने लगेंगे तो उनका आखरी रामबाण होगा कि क्या तुमने देखा है ईश्वर को? मुझे दिखा दो तो मैं भी अभी से मानने लगूंगा.. अब कहाँ से लाओगे उनके सामने ईश्वर को? ये कलयुग है, यहाँ सच्चे इंसान तो खोजना बहुत मुश्किल है फिर ईश्वर कैसे दिखाओगे ऐसे लोगों को? आपके सारे तर्क, वेद-शास्त्रों की सारी बातें राम-कृष्ण, मोहम्मद साहेब, यीशु मशीह के जीवन प्रसंग सब कुछ व्यर्थ ही होगा ऐसे लोगों को समझाने के लिए, क्यूँ कि मुझे लगता है ऐसे लोग शायद जिद्दी प्रवृत्ति के होते हैं जो अपने आगे किसी की नहीं सुनते..
मंदिर जाना समय कि बर्बादी, दान-पुण्य करना-कामचोरों को बढ़ावा देना, सत्संग-मौज मस्ती ही लगता है इन्हें, तो आप कहाँ तक इन्हें समझा सकते हैं? और एक बात मान भी ली जाये कि किसी ने ईश्वर को देखा है तो वो कैसे विश्वास दिलाये कि उसने देखा हुआ है ईश्वर को? वैज्ञानिक सुनेंगे तो मुन्ना भाई कि तरह आपको भी केमिकल लोचा वाली बीमारी बता देंगे.. और अगर कुछ बड़े वाले हुए तो वहीँ से सीधे आगरा भेज देंगे फ्री में मनोचिकिसक की देख रेख में बढ़िया स्वास्थ्य लाभ दिलाने..फिर तो यही होगा ना कि- आये थे हरी भजन को ओतन लगे कपास..!
आस्तिक तो फिर आस्तिक ही होता है मगर आस्तिक में भी कई तरह के लोग होते हैं, एक वो जो ईश्वर कि सत्ता को स्वीकारते हुए भी कभी पूजा-पाठ या मंदिर या सत्संग नहीं करते, दुसरे वे जो थोड़े वक़्त पूजा पाठ कर लेते हैं और तीसरे वो जो हमेशा पूजा पाठ में भी तल्लीन रहते हैं, और इसमें भी कुछ तो ध्यान लगा कर लेकिन कुछ बाकी के काम भी निपटाते हुए पूजा करते रहते हैं. इसमें कुछ क्या, बहुत सारे लोग अन्धविश्वासी भी होते हैं जिन्हें आजकल हर जगह पर लोग ठगते रहते हैं और वो इसे ईश्वर कि माया समझ कर सब स्वीकारते रहते हैं.. बनारस, गया या ऐसे ही कई धार्मिक जगहों पर ऐसे पण्डे आसानी से आपको खुद खोज लेंगे और दान-दक्षिणा के नाम पर आपका सारा रुपया-पैसा ऐंठ लेंगे.. अब सवाल ये उठता है कि अगर ईश्वर है तो क्या वो अपने नाम पर ठग रहे लोगों को सजा नहीं देता? क्यूँ ऐसे लोग आजकल हर जगह मिल रहे हैं जो लगातार भोले भले लोगों को ठग कर अपना महल खड़ा किये जा रहे हैं और आम इंसान जो सीधा सादा है उसके मेहनत की कमाई पर ऐसे लोग ऐश कर रहे हैं? तो जवाब श्री कृष्ण जी ने दिया हुआ है कि मैं तब तक पापियों का संहार नहीं करूँगा जब तक उनके पाप का घड़ा नहीं भर जाता, और पाप का घड़ा भरने के बाद मैं उनको छोडूंगा भी नहीं..तो उनका जब तक समय नहीं आ जाता तब तक उनको मजा ही मजा है और उसके बाद बस सजा ही सजा है.. हम और आप ऐसे उदाहरण अपने आसपास आसानी से देख सकते हैं.
मैंने काफी सोचा है और इस निष्कर्ष पर पंहुचा हूँ कि आजकल सभी लोग जो ये कहते रहते हैं कि अब तो सच्चाई का ज़माना ही नही रहा, चोरों का बोलबाला है.. झूठ का राज है..पापियों कि मौज है..
और ये भी कहते सुना है कि धरती पर सच्चे लोगों का अकाल पद गया है, जबकि ऐसा नहीं है..आज भी सच्चे लोग मौजूद हैं इस धरती पर..बस हमारी नज़र होनी चाहिए उनको देख और पहचान पाने की.. असल में आजकल संगठन का ही राज है जैसा कि गौतम बुद्ध ने कहा था कि कलयुग में एक होकर, संगठित रूप में जो रहेगा वही रह सकेगा, तो आजकल अच्छे लोगों का कौन सा संगठन मौजूद है बताइए जरा? अन्ना हजारे अकेले खड़े हैं भ्रस्ताचार के खिलाफ, मगर उनके संगठन में भी सारे के सारे लोग उनके जैसे चरित्रवान होंगे ऐसे कहा तो नहीं जा सकता ना? और फिर हम घर से बाहर भी तो नहीं निकलना चाहते किसी दूसरे के लफड़े में..!! कौन फ़ोकट में अपना कीमती समय बर्बाद करे वाली सोच होगी तो क्या होगा समाज का? चोरों ने तो आपस में मण्डली बनायीं हुयी है, उनकी हर जगह पैठ है और बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों के साथ उठाना बैठना है, आप कौन सी मंडली बनाये हुए हो? आपकी क्या पहचान है? अगर आप सीधे हो और सच्चे हो तो आपको दूसरे बेवकूफ क्यूँ समझने लगे हैं? क्यूँ कि हम ठगे जाने के बाद भी किसी को खुल कर कुछ नहीं बताते.. हम दूसरे लोगों की बुराई नहीं करते.. लेकिन आज के युग में मुझे ऐसी बुराई जरुरी लगने लगी है कि आप झूठे, फरेबी और ढोंगी लोगों के बारे में सभीको खुल कर बताएं. इसे ईश्वर पर छोड़ने का वक़्त निकल चूका है, ईश्वर भी तो आपको कर्म करने को कहता है तो आप अपने कर्म से विमुख क्यूँ हो रहे हैं? क्यूँ चैन स्नेचिंग होने के बाद भी आप घरों में दुबक जाती हैं बिना क़ानूनी कार्यवाही किये? क्यूँ नहीं आप संगठन बना कर ऐसे लुटेरों का स्केच बनवाकर उनको पकद्वती हैं, हाँ, कानून की मिली भगत भी हो सकती है मगर वहाँ भी दागदार के साथ अच्छे लोग भी मौजूद हैं जो खुद अपने ही विभाग से तंग हैं.. आप सभी का साथ मिलेगा तो वो भी आपके साथ आकर खड़े हो जायेंगे..
सिर्फ क़ानून पर, नेताओं पर या व्यवस्था पर दोष दे लेने भर से ही हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती.. बिना मार्ग के रस्ते पर आगे बढ़ कर चलना पड़ता है तब चलते-चलते उस राह पर पगडण्डी बन जाती है फिर जब आपके पीछे सभी चलने लगते हैं तो वही राह एक दिन ऐसी बन जाती है जिसपर हजारों लाखों लोग चलने लगते हैं मगर हर जगह जरुरत हिम्मत, विश्वास, लगन, सच्चाई और एक सार्थक पहल की होती है, इसके बिना बस मज़बूरी ही मज़बूरी दिखाई पड़ती है. अगर हम सब मिल कर अन्धविश्वास से ऊपर उठ कर ढोंगी, फरेबी, लुटेरे, भ्रस्त लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दें तो क्या नहीं हो सकता.. हमे गंगा मैली दिखती तो है, पर हम पूजा के फूल माला, और अर्थियों के साथ मूर्तियाँ उसीमे विसर्जित करते हैं, ताकि और मैली हो जाये? अगर सभी एक साथ खड़े हो कर पहले तो खुद में सुधर करें उसके बाद ऐसी टेनरी जो अपना गन्दा पानी गंगा जी में बहते हैं उनके खिलाफ मोर्चा खोल दें तो उन्हें भी बाध्य होना पड़ेगा. या तो वे अपनी टेनरी कहीं और शिफ्ट कर लेंगी या फिर गन्दा पानी साफ़ कर के ही बहाएंगी. आजकल सच्चे आदमी ठगे जाने की आशंका से घरों में दुबक गया है और बुरे लोग हर जगह घूमते रहते हैं, बुरे लोग एक दिन में पचास लोगों से मिले और बीस को ठगा तो उन बीसों को ये लगेगा कि अब ज्यादातर लोग ठग ही हो गए हैं. जबकि सच्चे लोग तो ज्यादा लोगों से मिलते ही नहीं, बिना व्यव्हार के वो किस से मिलने चले जायेंगे? और जिनसे व्यव्हार है भी उनसे मिलने के लिए वक़्त ही नहीं है आजकल.. जितनी ज्यादा सुविधाएँ बढ़ गयी हैं इंसान के पास उतना ही वक़्त कम होता जा रहा है.. पहले बैलगाड़ी या टाँगे से चलते थे, तो कोई सफ़र घंटों में तय होता था, अब सभी के पास दोपहिया या चारपहिया वाहन क्या आ गया मिनटों का सफ़र हो जाने पर भी वक़्त नहीं निकल पाता..
जरुरी नहीं कि आस्तिक व्यक्ति सच्चा ही हो और नास्तिक बुरा, इसका उल्टा भी होता है. ईश्वर को मान लेना ही सब कुछ नहीं हो जाता, उनके बताये मार्ग पर चलना ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है,
जैसे किसी स्कूल में कोई विद्यार्थी अपने मास्टर के रोज पैर तो छूता हो मगर उनके सिखाने पर ध्यान नहीं देता तो क्या वो सिर्फ पैर छू कर सच्चे मास्टर से परीक्षा में पास होने भर के नम्बर भी बिना पढ़े ला पायेगा? नहीं ना? वैसे ही सिर्फ ईश्वर को मान लेना, उसके आगे दिया या अगरबत्ती जला लेने से या पूजा पाठ का ढोंग कर लेने से उनकी कृपा कैसे मिल पायेगी जब हम सत्य के मार्ग को ही छोड़ देंगे? मंदिर में बैठ कर सुबह से शाम रामायण पढ़ें और दिमाग कहीं और हो तो उस भक्ति से सिर्फ हम अपना वक़्त ही ख़राब कर रहे हैं, जितना भी भक्ति या कोई भी कार्य किया जाये वो जब तक किया जाये दिल से पूरी तरह मन लगा कर किया जाये तभी उसके बेहतर परिणाम आते हैं.. अन्यथा हमने पूरी लगन से कोशिश ही नहीं की.
आस्तिक और नास्तिक से शुरू करके मैं कहाँ से कहाँ ले आया आप सभी को और जाने क्या-क्या समझाने लगा, जबकि मुझे खुद अभी बहुत कुछ समझना बाकी है.. मगर विचार हैं ना, जो एक बार आना शुरू करते हैं तो लगातार आते ही जाते हैं और कम्प्यूटर के टाईपराइटर पर उँगलियाँ चलना शुरू होती हैं तो रूकती ही नहीं,
और मैं क्या समझा रहा हूँ क्यूँ समझा रहा हूँ इन सब बातों को भूलकर सिर्फ अपने विचारों को कैद करना शुरू कर देता हूँ, शायद तभी काफी बोर कर देता हूँ..आदत से मजबूर जो हूँ.. हे हे हे..
अब ब्लॉग बनाया गया है तो अपने विचारों को सभी में शेयर करना चाहिए तो बस यही कर रहा हूँ, अभी अच्छा नहीं लिख पाता पर कोशिश करते रहने से शायद कभी अच्छा लिख सकूँगा..यही है मन में विश्वास
तो अब मुख्य बात पर आते हैं, ईश्वर को ना मानने वाले भला क्यूँ उन्हें मानें? इस पर मैं अपनी बात कहना चाहूँगा कि सभी इंसानों में एक देव और एक राक्षस का रूप होता है, एक प्रवृत्ति दबी हुयी अवस्था में होती है जबकि दूसरी जाग्रत अवास्था में, इसी प्रवृत्ति से वो समाज में अच्छे या बुरे रूप में जाना जाता है, जरुरी नहीं कि वही प्रवृत्ति हमेशा उसके जीवनकाल में बनी रहे, कभी कोई डाकू भी साधू बन जाता है जैसे वाल्मीकि बन गए और कभी कोई सच्चा सीधा व्यक्ति भी डाकू बन जाता है जैसे पान सिंह तोमर.. समाज द्वारा दिया गया सम्मान, प्यार या चोट ही इंसान के अन्दर दोनों में से किसी एक को प्रबल रूप से जब समाज के सामने लाते हैं तो वो अच्छे या बुरे रूप में लोगों में विख्यात या कुख्यात होता है. और वर्तमान में अच्छा बना रहना बड़ा ही कठिन है जबकि बुराई के रस्ते का शार्टकट सभी अपनाना चाहते हैं, मगर कुछ लोग चाहकर भी ऐसा नहीं कर पते मगर क्यूँ? क्यूँ कि उनके अन्दर एक डर बना रहता है ईश्वर का, और वो जरुरी है हमे नियंत्रित करने के लिए, जैसे समाज में क़ानून बना है वरना जंगल राज में तो जिसकी लाठी उसकी भैंस होती.. अब जिसके पास पैसा उसके पास इज्जत, शोहरत, मुहब्बत.. सब कुछ मिलता है.. मगर ऐसे लोगों को देख कर जो बुराई से धन कमा रहे हैं लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ रहा दूसरे भी उसी रस्ते में चलने लगते हैं अगर उनके अन्दर ईश्वर का भय कम या बिलकुल नहीं है.. शायद उनको ये लगता होगा कि पाप करो और दान कर के सब बराबर कर लो, लेकिन वास्तव में ऐसा होता है क्या? ऐसे लोगों को ही अगर पूछा जाये कि अगर उनकी सबसे प्यार चीज़ ले ली जाये चाहे वो उनकी औलाद हो या कुछ और.. इसके बदले में उनसे पैर पकड़ कर माफ़ी मांग ली जाये या पैसे दे कर माफ़ी मांग ली जाये तो क्या वो माफ़ कर देंगे? मुझे तो नहीं लगता.. क्यूँ कि बुरे से बुरा व्यक्ति भी सच्चाई को पसंद करता ही है, ये बात और है कि वो सच्चाई और ईमानदारी खुद ना सही अपने आसपास के लोगों से अपेक्षा करता है. तो जो चीज़ अच्छे और बुरे सभी को पसंद है तो वो तो सर्वश्रेष्ठ ही हुयी ना? तो ऐसी चीज़ को हम अपने दिलों से और समाज से क्यूँ बाहर करते जा रहे हैं? अगर सभी के दिल में अपने माँ-बाप, गुरु या ऊपरवाले का डर ही नहीं रहा तो क्या रहेगा इस समाज में? सभी अपने मन कि करेंगे, ना कोई क़ानून मानेगे और ना ही नियम-कायदे. यानि मनुष्य फिर से जहां से चला था उसी जंगल में पाषाण युग में लौट जायेगा वो भी सूत-बूट और टाई पहन कर..
अगर अभी हम नहीं संभले तो वास्तव में हम सब उसी जंगल राज ही कि तरफ जा रहे हैं और इसमें सभी दोषी हैं क्यूँ कि गाँधी जी ने भी कहा है कि अन्याय करने वाले के साथ वो भी दोषी है जो अन्याय सह रहा है.. हमे अब ईश्वर का तो डर नहीं रहा लेकिन एक बात का डर सभी को जरुर हो चला है वो है अपनी जान का डर, जानते सभी हैं कि हमे एक दिन तो मरना ही है मगर फिर भी हाय पैसा-हाय पैसा किये जा रहे हैं और कोई लुटेरा नकली बन्दूक ही दिखा दे तो जान के डर से उसे सब कुछ सौंप देते हैं. डरना ही है तो उस ईश्वर से डरो, पाप, बुराई और भ्रष्टाचार करने से डरो,
जिस से समाज और देश के साथ समूची मानवता की रक्षा हो सके.
एक और कारण है, वो ये कि ईश्वर को मानने वाला सकारात्मक विचारों वाला होता है, वो अपने आप को ईश्वर के ऊपर ही छोड़ देता है और जिस हाल में है उसमे कष्ट ही सही भोगता रहता है, बस एक आस में कि कभी तो ऊपरवाला उसकी जरुर सुनेगा और उसके अच्छे दिन भी जरुर आयेंगे, उसके अच्छे कर्मों का फल भी एक दिन मिलेगा. अँधेरे में जिस तरह रौशनी की एक किरण भी काफी होती है उसी तरह ऐसे आस्तिकों में उम्मीद कि किरण हमेशा जगमगाती ही रहती है. अगर किसी ने अपनी डूबती जीवन नैया को ऊपर वाले के हाथ में छोड़ दिया है लेकिन कर्म करना नहीं छोड़ा तो ईश्वर भी उसकी मदद किसी ना किसी रूप में कर ही देता है. और विश्वास तो वो सूत्र है जिस से बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक गुत्थियाँ भी सुलझाई जा चुकी हैं. यही विश्वास अगर ईश्वर में बनाये रखें तो वो देर से सही जरुर सुनेगा, और जिनको जल्दी है उनको जाने से कौन रोक सका है.. जैसे यहीं पर देख लीजिये जिनको जल्दी थी वो बिना मेरा ये पूरा लेख पढ़े ही चले गए.. भला सब्र कहाँ रह गया है आजकल सभी में, सभी को जल्दी है.. देखते ही होंगे सड़कों में चलते समय.. ये भी आज के लोगों का आस्तिक होते हुए भी नास्तिक का आचरण करने का प्रमुख कारण है. अब कोई जल्दी ईश्वर के फल देने का इंतज़ार नहीं करता, लोग ये कहते हैं कि अगर बुढ़ापे में ऊपरवाले ने फल दिया तो उस उम्र में रुपया पैसा ले कर कौन सी मौज कर लेंगे? यानि खुद की ही सोच, स्वार्थीपन.. अपनी औलाद के सुख की नहीं उन्हें तो खुद के मौज की पड़ी हुयी है तो ऐसे लोग भला क्या दिल से मानते होंगे ऊपर वाले को?
हम भारतवासी तो उनमे से हैं जो कोई भी काम करने से पहले अपने आराध्य को जरुर याद कर लेते हैं, हम बड़ी से बड़ी आधुनिक वाहन या मशीन भी चलाते हैं तो श्रद्धापूर्वक उसको नमन कर के, क्यूँ कि हमारा पेट वही भरता है, हमारी रक्षा वही करता है, वो हमे लाभ ही पहुचाये इसलिए हम उस मशीन के भी पैर छूटे हैं, ये ही आस्तिक होते हैं, यानि वो हर जगह किसी ना किसी रूप में ईश्वर को आपने समक्ष मानकर उसकी अराधना करते हैं, गलती से भी किताबों में विद्यार्थी पैर लगने पर किताब को शीश नमन करते हैं, कान छूटे हैं, जबकि वो तो सिर्फ एक कागज़ ही तो है जो पेड़ पौधों से बना है? मगर हमने हर चीज़ को ईश्वर कि सत्ता मानकर उसे हर रूप में देखा है और पूजा की है, तैतीस करोड़ देवी देवता ऐसे ही थोड़ी हो गए.. आप जो भी काम करेंगे उसके लिए एक विशेषज्ञ की तरह उस काम का कोई ना कोई देवी देवता बना हुआ है, गणेश जी से सारे काम शुरू होकर उनके पिता शंकर जी द्वारा सभी समापन किये जाते हैं, ब्रम्हा जी जन्म देने में, विष्णु जी पालन में, शंकर जी भैरोघाट पहुचाने में तो हैं ही, पढाई लिखाई अर्थात ज्ञान में सरस्वती जी ने कमान संभाल राखी है, लोहे का काम शनि देव, निर्माण का काम विश्वकर्मा जी, धन-दौलत का लक्ष्मी जी की तरह हर तरह के कार्यों को उस क्षेत्र के विशेषज्ञ देवगणों ने सम्भाला हुआ है, हमारी हिन्दू आस्था में धर्म के स्कूल का हेडमास्टर तो एक ईश्वर ही है मगर हर विषय के लिए अलग-अलग प्रोफेसर भी हैं.. यही सबसे सरल तरीका लगा मुझे समझाने का तो मैंने यही उदाहरण दे दिया, शायद इस से भी अच्छे उदाहरण हों.. तो यही है यहाँ की आस्था का स्वरुप कि हम महाकुम्भ मेले में अनजाने में ही विश्व रिकार्ड बना लेते हैं किसी भी समारोह में एक साथ एकत्रित होने में..और अन्धविश्वासी इतने कि गणेश जी को हजारों लीटर दूध पिला देते हैं या रातभर सभी जागते हैं कि कहीं उनकी आँखें पत्थर की ना हो जाएँ.. ईश्वर की सत्ता अलग है, ईश्वर की या गुरु की निंदा सुनना भी पाप है मगर ऐसी अफवाहों का ईश्वर से कोई लेना देना नहीं है, ये सिर्फ और सिर्फ अफवाह ही होती है और अन्धविश्वासी ऐसी बातों को ईश्वर से जोड़ कर उन्हें मानने लगता है. बस थोडा सा दिमाग अगर इंसान लगा ले तो ऐसी अफवाहों की पोल खुल जाती है, अगर उस अफवाह वाली रात जिसकी आँख पत्थर की हो गयी थी उसका नाम या फोटो आजतक किसी समाचार में क्यूँ नहीं आया? अगर हल्दी और चूना लगाने से आदमी पत्थर का नहीं होता तो ये बात भला उसी रात किसी दूसरे को कैसे पता चल गयी? आखिर कौन सी चीज़ है जिस वजह से आँखे पत्थर की हो जाती थी? कोई तो कारण होगा? ऐसे ही तमाम सवाल थे जो ऐसे अफवाहों की पोल खोल देते हैं. लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि हम उत्तर भारतीय किसी भी अफवाह को सबसे तेजी से फैलाते हैं चाहे वो गणेश जी के दूध पीने कि बात हो, मुंहनोचवा हो, औरतों द्वारा अपने पुत्रों को दुर्घटना से बचाने के लिए सड़क पूजने की अफवाह हो या हालिया पत्थर बनने वाली अफवाह.. हम सभी भेड़चाल अपनाते हुए बिना देखे समझे ऐसे गड्ढों में गिरते रहते हैं मगर फिर भी कोई प्रिंस नहीं बन पाता.. प्रिंस से याद आया कैसा है वो? किसी को पता है उसके बारे में? उस बोरिंग के गड्ढे का क्या हाल है? उससे पानी तो निकलने से रहा, वहां से तो प्रिन्स निकला था, उस वक़्त भी सभी कैसे टेलीविजन के सामने आँख गडाए उस अनजान बच्चे के लिए ऊपरवाले से दुआएं कर रहे थे, और देखिये उसने सुन भी ली और उसे सुरक्षित बाहर तो निकला ही साथ ही लक्ष्मी जी की विशेष कृपा भी बरसा दी गयी..लेकिन आज के लोग गड्ढे में नहीं खुद का ईमान गिरा कर लक्ष्मी जी की कृपा पा रहे हैं.
निर्मल बाबा के बारे में भी जाने क्या-क्या बातें फैलाई गयी, उनको तो जिन्होंने दान स्वरुप दशवंत भेज दिया फिर वो उस दान के लिए उन पर मुकदमा कर रहे हैं? आश्चर्य है, यानि अगर मैंने किसी भिखारी को दस ना नोट दिया और वो उस से बीडी खरीद कर पी ले तो मुझे उसके ऊपर मुकदमा दर्ज कर देना चाहिए इस बात से तो यही सन्देश मिल रहा है. निर्मल बाबा और भिखारी में कोई समानता नहीं मैंने बस दान देने के बाद भी उसपर हक़ जमाने को गलत कहने के लिए ये बातें बोली हैं, और फिर वो तो ये कभी नहीं कहते कि सभी लोग मुझे ही दशवंत भेजो, उनका कुछ एक भक्तों से जरुर ऐसा कहना होता है, वो तो एक परामर्शदाता हैं और सिर्फ यही बताते हैं कि हमे किस तरह से पूजा पाठ करनी चाहिए या हमारी पूजा में कहाँ कमी आ रही है, खुद के शौक को नहीं मरना चाहिए, जो भी अछि चीज खाने का दिल करे खा लेना चाहिए जैसी बातें ही तो बताते हैं वो, और रही दशवंत की बात तो उनका कहना है कि अपनी कमाई का दसवां हिस्सा धर्म के कामों में खर्च करो, चाहे वो आप किसी को दान दे दो, मंदिर में दे दो, गरीबों में दे दो या ऐसे ही किसी पुण्य काम में खर्च कर दो. उन्होंने समागम में अगर किसी विशेष व्यक्ति को दशवंत ना भेजने से मुट्ठी बंद होने की बात कही है तो केवल उसी व्यक्ति से कही है सबसे नहीं, और ना ही उनके सुझाये गए सवालों के जवाब में समोसे में हरी चटनी खाने जैसे या गोलगप्पे खाने जैसे सुझाव सभी लोगों के लिए होते हैं, मैं बस उन्हें मार्गदर्शक की तरह मानता हूँ, या एक चिकित्सक की तरह जो हमे हमारी कमियों से परिचित करवाता है, और फिर किसी टी.वी. रिपोर्टर ने इस बात पर गौर नहीं किया कि वो अन्धविश्वास के खिलाफ लोगों को जाग्रत कर रहे हैं, तांत्रिकों की अंगूठी और जादू टोने के खिलाफ बोल रहे हैं, ऐसे में जिनकी बिक्री बंद हो रही होगी तो वो कोई ना कोई लांछन ऐसे लोगों के खिलाफ लगाएगा ही,
और एक बात, निर्मल बाबा अकेले समोसा, गोलगप्पे या रसगुल्ले खाने को नहीं कहते, बल्कि थोडा सा खा कर गरीबों में बांटने को बोलते हैं, अब झूठा इल्जाम लगाने वाले तो ये भी कह सकते हैं की उनकी भिखारियों के साथ सांठ-गांठ होगी, या रिक्शे वाले को वो कभी-कभी दस की जगह पचास रुपये देने को कहते हैं तो ये सब क्या है? ये साधारण सी चीज है दुआ की, बाबा आपको दुआ दिलवा रहे हैं भिखारी, मजबूर और गरीबों से, और दुआ कितना काम करती है एक छोटा सा उदाहरण दे ही चूका हूँ मैं प्रिंस के गड्ढे में से सही सलामत निकलने की देकर.
उनके समागम में दो हजार की फीस ली जाती है एक व्यक्ति के लिए. मैंने पहले उनके इतना ज्यादा पैसा लिए जाने के बारे में बहुत सोचा की आखिर वो इतने पैसे का करते क्या होंगे? मगर पटना के समागम में जाने का मुझे पिछले वर्ष मौका मिला था और वहाँ मेरे इस सवाल का भी जवाब मिल गया, लगभग चार दर्जन टी.वी.चैनलों पर उनका आधे घंटे का विज्ञापन दिन में कई बार दिखाया जाता है, उसमे करोड़ों का खर्चा आता ही होगा, साथ में उनके सारे समागम किसी ना किस हाल में ही होते हैं, यानि खुली छत में नहीं होते, ज्यादातर वातानुकूलित होते हैं तो उनका खर्चा, उनके सुरक्षा कर्मियों की फ़ौज जो भीड़ संभालती है, समागम की व्यवस्था सँभालने वाले, हेल्प लाइन आदि में काफी धन खर्च होता है, और अगर किसी ने श्रद्धा से उन्हें दान स्वरुप धन भेजा है तो वो इस बात को नहीं पूछ सकता की उनके दान का इस्तेमाल कहाँ हो रहा है, हाँ अगर किसी काम के बदले में फीस चुकता की गयी हो तो जरुर जवाबदेहि बनती है. मैंने अकेले का ही टिकट लिया था पटना समागम का, मेरे साथ मेरी माँ और भांजा भी गए थे, अगर वो व्यापारी होते तो सिर्फ टिकट वालों को ही हाल में घुसने देते जबकि बाद में उन्होंने साथ में आये बिना टिकट के लोगों को भी अन्दर आने दिया था. हो सकता है भेडचाल की तरह ही आधे से ज्यादा उनके भक्त उनको देखने लगे हों, मगर उन्होंने तो खुद ही अपना प्रचार करने के लिए मना किया हुआ है, वरना उनके बारे में लोग तो पर्चे वगैरह छपाकर बांटना तक चाहते हैं.अगर कोई भी व्यापारी होता तो वो अपना व्यापर और फैलाना ही चाहेगा अगर कोई फ्री में उनका प्रचार करेगा तो.. मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, उनका कहना है कि जिसके ऊपर ईश्वर की कृपा आनी होगी उस तक उनकी बात खुद ही पहुँच जाएगी, साथ में उन्होंने साक्षात्कार में ये भी कहा था कि अगर टी.वी. चैनल वाले उनका विज्ञापन फ्री में दिखने को राजी हो जाते हैं तो वो भी फ्री में समागम करने लगेंगे.. तो क्यूँ नहीं किसी चैनल ने आगे बढ़ कर ये कहा कि हफ्ते में एक दिन ही सही वो उनका विज्ञापन फ्री में दिखायेंगे? उस दिन वो भी बिना पैसे के समागम करते? और फिर दो सौ करोड़ रुपये उनके खाते में आ रहे हैं तो इसका ब्याज भी तो लाखों में होता होगा, हो सकता है कि उन्होंने जो फ़्लैट लिया हो वो उसी ब्याज के पैसे से लिया हो?
करोड़ों रुपये उनके खाते से गायब हो गए, जिसने पैसे के लालच में उनके नाम की चेक कैश करवाई वो रो-रो कर टी.वी पर अपना दुखड़ा रो रही थी, अब इस तरह की जालसाजी होने पर किसी ने एक अलग से बैंक खता बना लिया तो वो भी एक समाचार बन गया? एक समाचार पत्र में छपा कि कब-कब उनके खाते में कितने रुपये आये, मान्यवर, किसी को आधी अधूरी जानकारी नहीं देनी चाहिए, आपको ये भी तो छापना था कि कब-कब और कहाँ-कहाँ बाकी के रुपये खर्च किये गए.? इस से सारी बात साफ़ हो जाती. जैसे अन्ना जी के पीछे कांग्रेस सर्कार पड़ी है वैसे ही अब निर्मल बाबा के पीछे धर्म के ठेकेदार जिनकी दूकान बंद हो रही है वो परदे के पीछे से ये खेल कर रहे हैं, हो सकता है मुझपर भी ऊँगली उठ जाये कि तुम्हे निर्मल बाबा ने ऐसा लिखने के लिए लाखों रुपये दिए हों? बोलने वालों का मुंह भला कौन बंद कर सका है? ऊँगलियाँ तो सीता माता पर भी उठी थी, कृष्ण भगवन कि बात ही छोड़ दें, और शिर्डी के साईं बाबा पर भी..
अब हम उन्हें क्या जवाब दें जो ये कहते हैं कि सीता माता को हनुमान जी लंका से आते समय अपने कंधे पर बिठा कर क्यूँ नहीं ले आये? या ये भी तो हो सकता था कि जैसे उन्होंने पूरा पर्वत उठा लिया था वैसे ही अशोक वन भी उठा कर सीता जी को राम जी के सामने ले आते, या ये भी सवाल उठा सकते हैं कि अगर सीता जी लक्ष्मी जी का रूप थी तो उन्हें रावन को पहचान लेना चाहिए था और उसे भिक्षा ही नहीं देना चाहिए था.. ऐसे ही तमाम सवाल हैं हम कलयुगी लोगों के, हमे तो हर चीज में मीन-मेख निकलने कि आदत जो है.
अब अन्ना जी फ़ौज से क्यूँ भागे? या निर्मल बाबा इसके पहले ठेकेदारी करते थे इन सब से क्या मतलब? वो अभी जो बात कह रहे हैं उसे नज़र अंदाज करने के लिए ही इस तरह कि बाते कि जाती हैं लोगों का ध्यान भटकाने के लिए. तब तो ऐसे लोग वाल्मीकि जी को साधू बन कर ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी उन्हें डाकू-डाकू कहते रहते और उनपर भी कोई झूठा आरोप लगा देते कि वो डाकुगिरी नहीं कर पा रहे होंगे तो साधू का चोला ओढ़ बैठे, जबकि लोगों को जब भी आत्मबोध हो जाता है और वो ज्ञान पारपत कर लेते हैं तभी से वो ईश्वर के निकट हो जाते हैं, कालिदास जी को ही ले लीजिये, वो कितने मुर्ख थे, मगर ज्ञान प्राप्त होने के बाद उन्होंने अभिज्ञान शाकुंतलम जैसी कालजयी रचना कर डाली. अभी के समय में वो होते तो सभी उनसे पूछते कि आपको कैसे ज्ञान प्राप्त हो गया? सिर्फ आपको ही ईश्वर ने ऐसा ज्ञान देने के लिए क्यूँ चुना जबकि यहाँ तो कई सालों से साधू-महात्मा तपस्या कर रहे हैं वगैरा-वगैरा..
इतना लम्बा चौड़ा भाषण लिखने के बाद बस यही निष्कर्ष निकलता है कि जिनके काम बन जाते हैं वो होते हैं आस्तिक और जिनके नहीं बनते वो नास्तिक..
आप इसे सिर्फ पढ़ कर मत जियेगा, इतना कीमती वक़्त निकल कर आपने लगभग पांच हज़ार शब्दों को पढ़ कर मेरे लेख का माँ रखा है तो थोडा सा वक़्त और निकल कर इसपर अपने कीमती कमेन्ट जरुर कर दीजियेगा, और आप सभी को ह्रदय से धन्यवाद देता हूँ अपना ब्लॉग पढने के लिए, जरुरी नहीं कि मेरी बातों से आप सहमत ही हों, मैंने अपने विचार आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं, मैंने अच्छा लिखा या नहीं इस बारे में मैं नहीं बल्कि आपकी प्रतिक्रिया ही बता सकता है.. और आगे भी इसी तरह से आप अपना स्नेह बनाये रखें, इन्ही बातों के साथ विदा लेता हूँ..
शुक्रिया
--गोपाल के.
लेबल:
अन्धविश्वास,
आस्तिक,
आस्था,
ईश्वर,
चर्चा,
निर्मल बाबा,
प्रिंस,
मंथन,
विचार,
हिंदी
मंगलवार, 24 अप्रैल 2012
कहानी- शाकाहारी चील को लूजमोशन
धूप बहुत तेज थी और गरम हवाओं के थपेड़े मेरे पंखों को झुलसाते हुए से लग रहे थे, अप्रैल के महीने में ऐसी भयंकर गर्मी पड़ रही है. ये सब इंसानों का किया धरा है और हम सभी जीव जंतुओं को इसका फल भुगतना पड़ रहा है.. मैंने अपने पंखों को फिर से फड़फड़ाया और आकाश में थोडा और ऊपर उड़ने लगी, हम चीलों को आकाश में सबसे ऊपर उड़ना बहुत अच्छा लगता है जहाँ से सारा जहान दिखाई देता है और हमे अपना शिकार भी दिखाई देता है. हमे ऊपर वाले ने सबसे तेज नज़र दी है जिससे हम आकाश में बहुत दूर उड़ते हुए भी अपने शिकार को ठीक से देख पाते हैं, लेकिन कल कुछ ऐसा हुआ जिसकी वजह से मैं और मेरे नन्हे-नन्हे दोनों चूजे भूख से किलबिला रहे हैं और ऊपर से ये मुई धूप भी मेरा इम्तहान लेने पर तुली हुयी है जिंदगी कि तरह,
हाँ, ठीक कह रही हूँ, जैसे बाकी सारे इम्तिहान सिखाये जाने के बाद होते हैं पर जिंदगी पहले इम्तिहान लेती है और बाद में सिखाती है इसी तरह ये धूप भी कल से कुछ ज्यादा ही तंग कर रही है, एक तो भूख और ऊपर से पंख झुलसाती हुयी ये गर्मी.. उफ्फ.. काश मैं भी इंसानों की तरह किसी ए.सी.लगे कमरे में आराम से गद्देदार बेड पर पड़ी होती अपने बच्चों के साथ..!
तो कल की बात है मैं बच्चों का लंच लेने निकली थी तभी एक जगह ढेर सारे इंसानों का झुण्ड दिखाई दिया और ढेर सारी पूडी और सब्जी बिखरा हुआ देखा तो सोचा आज बच्चों को कुछ स्पेशल लंच करवाउंगी. ये इंसान जितना खाते नहीं हैं उस से भी ज्यादा तो अनाज बर्बाद कर देते हैं. मैंने अपने पंखों को समेट कर पेट से लगाया और अपने पंजों को मुट्ठी बंद कर के जमीन की तरफ खुद को छोड़ दिया, मैं किसी गिरते जहाज की तरह सीधी जमीन की तरफ काफी तेजी से जा रही थी, कानों में हवाएं सायें-सायें कर रही थी और मेरे बाल (पंख) उड़े जा रहे थे, सारा मेकअप हवा हुआ जा रहा था, मज़ा भी बहुत आ रहा था और जैसे ही मैं जमीन के नजदीक आने को हुयी मैंने अपने पंखों को पूरा फैला लिया और एक मस्त डाई लगाकर अच्छी सी लैंडिंग की, मैंने थोडा सा खुद खाया लेकिन मुझे अच्छा ना लगा तो मैंने अपनी चोंच और पंजों में कुछ पूड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर लिए और जैसे ही मैं उड़ने को हुयी तो देखा कि वहाँ पर मंच पर बड़े बालों की जटा और दाढ़ी वाला भगवावस्त्र पहने कोई साधू प्रवचन दे रहा था, मैंने सोचा क्यूँ ना थोडा सा प्रवचन भी सुनकर पुण्य कमा लिया जाये..
बस यही गलती हो गयी मुझसे, उस साधू महाराज ने लोगों को मांसाहार की बुराई बतानी शुरू कर दी और ईश्वर में ध्यान लगाने की बात कर रहा था, मुझे भी अच्छा लगा और मैं पूरा प्रवचन सुन कर घर आ गयी, मेरा घर तो एक सूखे पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर बना मेरा घोंसला ही है. मैं उस साधू महाराज की बातों से काफी प्रभावित हुयी और वहाँ के लोगों की तरह ही मैंने भी कल से मांसाहार छोड़ कर शाकाहार अपनाने का सोच लिया था, लेकिन हाय री बेबसी, मुझे शाकाहार हज़म नहीं होता और मेरा लूज मोशन शुरू हो गया,
मेरे दोनों बच्चों ने तुतलाते हुए मुझे मना किया था ऐसा करने से और खाने की तलाश में निकलने पर.. लेकिन मेरी ममता भला कैसे मेरे पंखों की उड़ान को रोक सकती थी?
सो मैं चली आई शहर शाकाहारी खाने की तलाश में, लेकिन यहाँ तो इन्सान खाने को ऐसी बुरी तरह बर्बाद करता है कि किसी के खाने लायक ही ना रहे,
शहर के बाहर कुछ गाँव और कस्बे दिखे मगर वहां के खेतों में ऐसे कीटनाशक पड़े हैं कि उनको खा कर मरे चूहों को अगर मैंने और मेरे परिवार ने खाया तो हमारा भी राम नाम सत्य होते देर नहीं लगेगी? फिर क्या होगा मेरी नस्ल का? वैसे ही चील, कौवे, बाघ सब ख़त्म हो रहे हैं और जो थोड़े बहुत हम जैसे बचे भी हैं उनकी भी नस्ल ऐसे तो ख़त्म होते हुए ही दिख रही है. और फिर मैंने तो मांसाहार छोड़ने का सोच रखा है तो चूहे खा भी नहीं सकती.
बस ऐसे ही खोजते हुए पूरा दिन बीत गया.. और दुसरे दिन मैं बहुत कमजोर महसूस करने लगी, मैं उड़ भी नहीं पा रही थी ठीक से, तभी मेरी हालत देखकर एक कौवे ने काओं-काओं की कर्कश आवाज़ निकलते हुए मुझसे हाल पूछा तो मैंने उसे झिड़क दिया कि अपने काम से काम रखो दूसरे के मामले में टांग मत अडाओ..
एक तो सिर से लेकर पैर तक पूरा काला का काला रंग और ऊपर से इतनी कर्कश आवाज़ कि जी करता है उसका टेटुआ दबा दूँ.. जाने क्यूँ मुझे उसके रंग रूप और आवाज़ से ही चिढ सी है..
मैं घोंसले में पड़ी अपने बच्चों को कड़ी धूप से बचाने के लिए अपने पंखों में छुपाया हुआ था.. उन दोनों ने उस दिन की लायी पूडी को ही अब तक किसी तरह चलाया था मगर अब उन्हें भी भूख लग रही थी और मैं अभी बेबस थी.
फिर भी अपने बच्चों की खातिर मैंने हिम्मत जुटाकर अंगडाई लेते हुए पंखों को खोला और उड़ने को हुयी तभी कमजोरी कि वजह से मुझे चक्कर सा आ गया और मैंने पास के पेड़ की डाल पर ही खुद को सँभालते हुए उतारा.. ऊपर से बच्चे चिल्लाने लगे मैंने इशारा किया कि मैं ठीक हूँ, तभी फिर से कौवा आ गया और इस बार वो अपने चोंच में एक चूहा मारकर लाया हुआ था. इस बार उसने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया और लगातार बोलने लगा.
"देखो बहन, तुम अभी बहुत कमजोर हो, और तुमने दो दिन से कुछ नहीं खाया, इसलिए पहले ये खाना खा लो और अपनी सेहत सुधार लो
उसके बाद जी भर के उड़ान भरने चली जाना खाने की तलाश में"
मैंने कहा-"मगर ये तो.."
उसने बात को बीच में ही काटा और बोला-
"हाँ जनता हूँ, बड़ी आई साधू महाराज का प्रवचन सुनने वाली,
अगर तुम ही नहीं रहोगी तो ये बच्चे कैसे जियेंगे? उनकी मौत का जिम्मेदार कौन होगा?
और रही बात शाकाहार की तो ये सब इंसानों के लिए कहा जाता है, जो जीव जंतु मांसाहार पर ही टिका हुआ है भला उसे क्यूँ पाप लगेगा मांसाहार खाने से?
सोचो अगर जंगल के शेरों ने हिरणों को खाना छोड़ दिया तो उसमे कमजोर और बीमार हिरण भी रहेंगे और अगर एक बीमार से सारे हिरनों में बीमारी फ़ैल गयी तो सभी हिरण मारे जायेंगे,
और अगर कमजोर हिरण जिन्दा रहे तो उनसे पैदा हिरण ना तो तेज दौड़ सकेंगे ना बीमारी से लड़ ही सकेंगे.. जंगल के तो कानून ही अलग होते हैं और यहाँ पर सर्वश्रेष्ठ को ही रहने की इजाजत होती है, इसी लिए ऊपर वाले ने हर बार अलग फीचर और टेक्नोलजी वाले मोबाइल की तरह ही हर जीव को अपग्रेड करने के लिए ये सिस्टम बनाया है, तभी तो तरह-तरह की मुश्किल के बाद भी उसका डंटकर मुकाबला करने वाले जीव ही जंगल में जिन्दा रह पाते हैं.. परिवर्तन संसार का नियम है मगर तुम्हे जिस लिए बनाया गया है तुम उस काम को करना क्यूँ छोडती हो? कभी सोचा है कि अगर हमलोग छोटे मोटे जीव जंतुओं को खाना छोड़ दें तो इस धरती का कितना नुक्सान हो जायेगा? एक तो ये इंसान सारा पर्यावरण खराब किये हुए हैं और ऊपर से तुम भी अपना कर्म ना कर के पाप की ही भागी बनोगी, हर जीव जंतु को एक निश्चित काम सौंप कर ईश्वर ने इस संसार के चक्र को पूरा किया है इसमें से एक भी कड़ी टूट गयी तो ईश्वर का बनाया ये माला रूपी संसार ही बिखर जायेगा.
तुम स्टाफ की हो, हम दोनों ही उड़ने वाले पंछी हैं तभी मुझे तुम्हारी ज्यादा चिंता है,
मैं तो ये सब बातें शहर में जा कर सीख गया हूँ तभी सोचा तुम्हे भी समझा दूँ, मुझे तुम्हारे और तुम्हारे चूजों की हालत ना देखी गयी तभी ये शिकार तुम्हारे लिए ले कर आया हूँ.
चलो इसे खाओ और अपनी बचकानी जिद छोड़ कर अपनी नस्ल की रक्षा और अपने धर्म का पालन करो.. अगर तुम जैसे सभी चीलों ने मांस खाना छोड़ दिया तो मारे हुए जानवरों को कौन खायेगा? तुम ही तो सबसे पहले दूर से उनका पता लगाती हो और उसे खा कर गंदगी की सफाई भी करती हो, वरना मारे हुए जानवरों से तमाम तरह की बीमारी फैलने लगेगी
और इससे जाने कितने बेगुनाह मारे जायेंगे.. "
उस काले कौवे की बातें और भाई का अधिकार जताकर समझाने से मेरी आँखों में आंसू आ गए थे..मैंने उसे नज़रे नीचे किये हुए कहा--
'' बस कौवा भाई बस, मैंने अपना महत्व समझ लिया है, मैं इस धरती की सफाई कर्मी हूँ और मुझे हमेशा साफ़ सफाई रखनी है मारे हुए जीव जंतुओं को खा कर..
और अब मैं अपना फर्ज हमेशा निभाउंगी.. मुझे माफ़ कर देना जो मैंने तुमसे तब ठीक से बात नहीं की..''
इस पर उसने कहा--''अरे छोडो बहना, लोग मेरे रंग और मेरी कर्कश आवाज़ से नफरत करते हैं और तुमने भी यही किया,
किसी के बाहरी शरीर की सुन्दरता को देख कर नहीं उसके अंतर्मन की सुन्दरता को देखना चाहिए और हो सकता है कि किसी की बोली अच्छी ना हो
और वो अच्छी बात भी बोले तो बुरा लगे, मगर उसकी आवाज़ नहीं उसकी बात पर ध्यान देना चाहिए..
अच्चा चलता हूँ, बच्चों को स्कूल से लेन ला वक़्त हो गया,
मेरे बच्चे अभी स्कूल में मिड डे मील का बना खाना खा रहे होंगे जो वहां के इंसानी बच्चों ने अच्छा ना लगने पर फेंक दिया होगा..
कल मिलता हूँ, अपना ख्याल रखना, बाय.."
और कौवे भैया ने पंख हिलाकर मुझे अलविदा कहा और स्कूल की दिशा में उड़ चला,
मैं खुद को कोसती रही और उसकी बताई शिक्षा को जीवन में उतारने का संकल्प ले कर कौवे का लाया चूहा खाने लगी..
मेरे दिल में अब कौवे के प्रति ढेर सारा आदर भाव आ चूका था और मैं खुद के कर्त्तव्य को अच्छी तरह से समझ चुकी थी.
--गोपाल के.
मंहगाई डायन डसेगी डीजल और कॉल
पेट्रोल की तरह ही अब डीजल पर से भी सरकार ने अपना नियंत्रण हटा कर ये साबित कर दिया है कि वो बढती मंहगाई से लापरवाह है,
सरकार को न तो गरीबों के पेट कि चिंता है ना रसोई में कम होते राशन का.. आम आदमी जो पहले ही बजट के दायरे में रहकर किसी तरह घर चलता था अब तो अपनी बेबसी किसी को दिखा भी नहीं सकता, अमीरों पर कोई फर्क नहीं पड़ता, गरीब फटेहाल भी रहेगा तो कौन पूछने वाला है वो तो पहले से ही फटेहाल में जी रहा था, पर इस लगातार बढती मंहगाई का सबसे अधिक शिकार होता है आम मध्यमवर्गीय परिवार, क्यूँ कि उसे बैलंस बना कर चलना होता है, अमीरी के पायदान को वो छू नहीं सकता और गरीबी कि रेखा में वो आना नहीं चाहता, बस यही मज़बूरी उसे खाए जाती है.
मैंने हमेशा लिखा है कि सरकार चाहे तो पेट्रोल के दाम बढाती रहे ज्यादा असर नहीं होगा, लोग किसी ना किसी तरह आवागमन का साधन जुटा ही लेंगे, लेकिन अगर डीजल के दाम पेट्रोल कंपनियों के ऊपर छोड़ दिया जाता है तो वो तो लगातार इसके दाम बढ़ाएंगी ही और यही कहेंगी कि अभी भी हमारा घाटा हो रहा है.
अब बारी आएगी इसके बाद गैस सिलेंडर से सब्सिडी हटाने की. और मुझे लगता है कि अगले साल तक ये काम भी बखूबी हमारी कांग्रेस सरकार कर ले जाएगी और कोई कुछ नहीं कर पायेगा,
सभी बस ट्रेनों में, चाय और पान की दुकानों पर इस मुद्दे पर बहस करते रह जायेंगे और उनके जेब से निकला धन कितना विकास में खर्च होगा और कितना स्विस बैंक में जमा होगा इस से किसी को कोई लेना देना नहीं होगा. इतनी मंहगाई बढ़ गयी लोगों पर लगातार टैक्स का बोज़ बढ़ता गया मगर देश का कितना विकास हो गया ?
डीजल के दाम बढ़ने से माल धुलाई मंहगी होगी, क्यूँ कि ट्रक, लोडर, डीजल रेल से जो माल कि धुलाई होती है वो डीजल के दाम बढ़ते ही बढ़ जायेंगे, इसके बाद बारी आएगी हर चीज़ के दाम आसमान छूने की. दोगुना से तीनगुना तक हर चीज के दाम तो बढ़ने ही हैं हो सकता है इस से भी ज्यादा बढ़ जाये. हम और आप बस देखते रह जायेंगे जैसे पिछले 7 -8 साल से देखते आ रहे हैं,
हमारी जेब कट रही है और हम हैं कि अपना बजट ही कम करने में पूरा ध्यान लगाये हुए हैं. और हो भी क्यूँ ना? हम कौन सा जिम्मेदार नागरिक हैं जो देश और समाज कि चिंता करते हैं?
हमे तो सिर्फ और सिर्फ अपनी ही चिंता रहती है.
मेरा मानना है कि सरकार अगर सही निर्णय ले तो इतनी ज्यादा मंहगाई नहीं बढ़ सकती थी. जिस सब्जी के दाम थोक में चार रुपये होता है वही फुटकर में आते- आते पंद्रह बीस रुपये क्यूँ हो जाता है? क्या सरकार को इन बातों का पता नहीं है? या वो सिर्फ इन्टरनेट और फ़ोन पर ही अपना सारा ध्यान लगा बैठी है कि कौन हमारी बुराई करता है, हमारे खिलाफ बोलता है?
वैसे भी ये सरकार समस्या का कारण नहीं खोजती बल्कि उल्टा समस्या पर ध्यान दिलाने वाले को ही अपने सरकारी तंत्र का दुरूपयोग कर के परेशां करने लगती है, अन्ना जी और बाबा रामदेव इसके ताजा उदाहरण हैं, अगर साकार चाहती हो क्या बैठ कर इसपर निर्णय नहीं हो सकता था? भविष्य में जो कालाधन जमा करेगा उसपर कार्यवाही होगी पर जो पहले कालाधन जमा कर चुके हैं उनके बारे में क्यूँ ढील दी जा रही है? जनता में तो यही सन्देश जाता है इस से कि अब तक सबसे ज्यादा इन्होने ही देश में राज किया है यानि इनके ही सबसे ज्यादा नेताओं ने काला धन विदेशी बैंकों में जमा कर रखा होगा.. सरकार अगर खुद इस मुद्दे पर कोई कारगर कदम उठाती तो सरकार पर इतनी ऊँगलियाँ कदापि ना उठ रही होती.
अब बात करते हैं डीजल के दाम बढ़ने कि, तो सरकार बड़ी कारों को डीजल क्यूँ एक ही रेट पर देती है? कार वाला शख्स क्या आपकी सब्सिडी के लायक है? क्यूँ नहीं ऐसी कारों को डीजल से चलने पर पहले ही रोक लगा दी गयी होती? साफ़ है कि सरकार ने खुली छूट दे राखी है और लूट मची है यहाँ..
अब बात करते हैं गैस सिलेंडर की, तो पिछले कुछ सालों में कितने कार और वैन गैस से चलने लगे हैं ये आप सभी जानते हैं, इनके मालिक क्या करते हैं कि दिखने के लिए एक-दो लीटर सी.एन.जी. गैस पेट्रोल पम्प से भरवाकर उसकी पर्ची (रशीद) ट्रैफिक पुलिस को दिखने के लिए रख लेते हैं, और वाहनों की चेकिंग कैसे होती है इस से आप सभी वाकिफ हैं, बस मुट्ठी गर्म कर दो वर्दी की और निकल लो धीरे से.. हम और आप एक गैस सिलेंडर कितने दिन चला लेते हैं? दिन नहीं महीनो चलता है ना? कम से कम दो से तीन महीने तो हर घर में चल ही जाता है मगर इन वाहनों में एक दिन में एक सिलेंडर इस्तेमाल हो जाता है, उनको तो कमाई करनी है इसी से तो वो ब्लैक में सिलेंडर खरीद लेते हैं और हमारा हक़ मार कर ऐश करते हैं, हमे गैस के लिए कतारों में या मुह्मंगे दामो को चुकाकर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, जब मुझ जैसे एक आम इंसान को ये हकीकत पता है तो क्या सरकार को इस बात का पता नहीं होता? मैं नहीं मान सकता, हरगिज़ नहीं..
तो क्यूँ नहीं सरकार ऐसे वाहनों पर सख्ती करती? ऐसे वाहन तो आसानी से चिन्हित किये जा सकते हैं जो गैस से चलते हैं.
मगर हम सब सरकार से ज्यादा जिम्मेदार हैं क्यूँकि हम सब कुछ देखते हुए भी उसकी अनदेखी करते हैं. अगर हम अपने आसपास ऐसे लोगों को घरेलु गैस का प्रयोग वाहनों में करते देखते हैं तो क्यूँ नहीं इसकी सूचना देते हैं? हाँ, मगर होगा क्या? जो कमा रहा है वो तो एक दिन का पैसा दे कर फिर से हमे चिढ़ता हुआ फिर और ताल थोक कर हमारे सामने ऐसा करने लगेगा.. बहुत ही ज्यादा भ्रष्टाचार फ़ैल चूका है जिसने अब हमारी जेबों को खली करना शुरू कर दिया है..
भ्रष्टाचार तो अमीरों कि ही दें लगती है, उन्हें कतारों में खड़ा होना पसंद नहीं ना, तो उन्होंने अलग से पैसे देकर अपना समय बचाने के लिए घूस के परम्परा कि नींव राखी होगी, और जब घूस लेने वालों ने उसे अपने घर के खर्चों में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो उनकी घरेलू जरूरतें बढ़ गयी होंगी और फिर वो मजबूर हो कर औरों से भी घूस मांगने लगे होंगे, आम आदमी क़ानून का उतना ज्यादा जानकार नहीं है और हर कहीं उस से कोई ना कोई गलती हो ही जाती है और अगर उसका काम कानूनी ढंग से किया जाये तो इसमें काफी वक़्त लग जायेगा और उसका आने जाने का जितना किराया भाडा और परेशानी होगी उस से बचने के लिए उसने भी इसे स्वीकार कर लिया, अब तो हम सभी सरकारी विभागों में सरकार के काम करवाने का अलग से ऐसे घूसखोरों को पैसे दे आते हैं. और अब ये प्रथा बन गयी है, उनका हक़ बन चुकी है, कई विभागों में तो उनके ही कर्मचारियों को अपना ही वेतन, एरियर, डी.ए. , इन्क्रीमेंट, टैक्स और पेंशन बनवाने का खर्चा पानी देना पड़ता है, और इस से पुलिस महकमा भी अछूता नहीं रह गया है.. वास्तव में सीधा आदमी हर जगह ही परेशान है, और ये सब सिर्फ अव्यवस्थित होने से ही हो रहा है, अगर सभी एक संगठन बना कर चलें तो क्या नहीं हो सकता? बस एक सही शुरुआत की देर है..
सरकार तो पहले आम जनता की आदत ख़राब कर देती है और उसके बाद हमे उसकी कीमत बढ़ाकर मजबूर करती है ज्यादा दाम चुकाने को, वरना लोग तो पहले कोयले और कंडे से ही खाना पकाया करते थे, लगता है अब फिर से घरों में सुबह शाम धुंआ उठता दिखने लगेगा.
अभी तक तो ये था कि लोग भले ही कम खाते थे इस मंहगाई कि वजह से, पर अपने नाते-रिश्तेदारों और दोस्तों से बात कर के जी हल्का कर लेते थे पर अब तो बातें भी मंहगी हो जाएँगी.. सभी मिस कॉल ही मरेंगे तो बात कैसे होगी? कुछ दिनों में लोग मिस कॉल से ही हालचाल लेने लगेंगे, हमने आपको मिस काल दी यानि मैं ठीक हूँ, आपने इसका उत्तर मिस कॉल से दिया यानि आप भी ठीक हैं..
आप जहां जायेंगे सरकार पीछे-पीछे मंहगाई डायन लेती आयगी और आपको डसती रहेगी, कब तक बचियेगा जनाब??
--गोपाल के.
लेबल:
आम आदमी,
कॉल,
गैस सिलेंडर,
घूस,
चर्चा,
डीजल,
बहस,
भ्रष्टाचार,
मंहगाई डायन,
मुद्दा
सोमवार, 23 अप्रैल 2012
महिला प्रतीक चिह्न – दासता के परिचायक या भावनात्मक समर्पण की पहचान ?
महिला, औरत या स्त्री.. चाहे जो भी नाम ले लें मगर औरत की भूमिका हमारे समाज में हमेशा से अग्रणी रही है और रहेगी,
बिना नारी के ये दुनिया अगर चल भी जाये तो इसमें नीरसता, भावना शुन्यता, अंधकार जैसे भाव ही बचे रहेंगे..
क्यूँ कि हमे इस दुनिया में लाने वाली ही हमारी मां सबसे पहले एक औरत है, और हम अपने देश या भूमि को भी स्त्री का ही दर्जा देते हैं,
क्यूँ? पुरुष का दर्जा क्यूँ नहीं दिया गया ? इसलिए क्यूँ कि औरत को ऊपरवाले ने एक विशेष गुण के साथ भेजा है और वो है सहनशीलता..
जो कि हम पुरुषों में उनसे कम ही पाई जाती है, धरती ने जितना बोझ उठाया है हम सबका वो इसी सहनशीलता कि निशानी है तभी तो इसे
हम धरती मां के रूप में स्वीकारते हैं और देश को भी भारत मां कहते हैं. साथ ही हम दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी मां के रूप में औरत को शक्ति
का रूप भी मानते हैं. इतना कुछ होने के बावजूद हमारे समाज क्या पूरी दुनिया में पुरुषों को ही औरत से ऊपर रखा गया है.
इसके कई कारण हैं, मगर इस से ये सिद्ध नहीं हो जाता कि पुरुष श्रेष्ठ है तो औरत निम्न है, अब किसी को अपनी दोनों आँखों में से कौन सी श्रेष्ट और
कौन सी निम्न लगेगी कुछ इसी तरह का विवादित और मूर्खतापूर्ण सवाल है ये मेरी नजर में, जिसका मकसद सिर्फ विवाद और झगडा उत्पन्न करना है.
अब आते हैं समाज कि बनायीं व्यवस्था पर, तो क्या आपने कभी भी ये सुना है कि किसी लड़की ने किसी लड़के का बलात्कार कर दिया?
पहले मेरी पूरी बात सुन लीजिये फिर इस बात का मुख्य विषय से जुड़ाव भी समझ में आ जायेगा?
मुझे लगता है कि किसी ने नहीं सुना होगा.. क्यूँ नहीं सुना? क्यूँ कि लड़के ही सबसे ज्यादा लड़कियों को छेड़ते हैं और इसी कोशिश में रहते हैं कि उनके साथ
संसर्ग स्थापित किया जा सके, और अब तो समाज में इस तरह कि घटनाओं पर बाढ़ सी आ गयी है ऐसा आप भी रोजाना के ख़बरों में पढ़ या देख कर जानते ही होंगे.
बस एक यही ठोस कारण लगता है मुझे औरत को घर कि दहलीज में रखने का, क्यूँ कि हम सबके घर की औरतों को घर के बाहर खतरा होता है इस तरह का तभी उनको
घर के अन्दर के काम काज सौंपे गए, बहार के कामों को पुरुषों ने हर्ष पूर्वक स्वीकार कर लिया. औरतों ने रसोई और परिवार की देखभाल को बखूबी अंजाम दिया.
पुरुष काम करके धन अर्जित करने लगा और स्त्रियों ने घर को संभाला उनके बच्चों का लालन पालन किया साथ ही उसे फिर से काम पर भेजने लायक शक्ति देने के लिए
अच्छा भोजन बना कर दिया. ये व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही थी कि तभी हमारे समाज में एक क्रांति आई अस्सी के दशक में टेलीविजन के रूप में, जिसने यहाँ के लोगों को
पूरी दुनिया के बारे में बताया, फिर इन्टरनेट और मोबाइल क्रांति इस से भी तेज गति से हमारे समाज को प्रभावित करती गयी, और हम पश्चिमी सभ्यता कि देखा देखी खुद को काफी
पिछड़ा और असहाय महसूस करने लगे. ये हीन भावना ही हमारे समाज में बिखराव के बीज बोटा गया और हम भी स्त्री पुरुष में सर्वश्रेष्ठता कि जंग में कूद गए,
ये नहीं देखा कि पश्चिमी सभ्यता कैसी है और वहाँ कैसा क़ानून और कैसा चलन है बस कूद गए बिना देखे सुने और समझे..
जरुरी नहीं कि एक ही क़ानून किसी भी देश, काल या धर्म में अच्छा या बुरा हो, जो चीज यहाँ अच्छी है जरुरी नहीं कि पूरी दुनिया में वो अच्छी हो,
और हमने एक ऐसा जंग का मैदान खड़ा कर दिया जिसमे स्त्री समाज अलग और पुरुष समाज अलग खड़ा है,
जंग किस बात की है? ये किसी को नहीं पाता, बस एक दुसरे से श्रेष्ट कहलाने कि होड़ सी है..
पश्चिम में तो उनके बच्चे कोलेज में जाने से पहले ही घर छोड़ देते हैं और खुद का जीवनसाथी चुन कर उसके साथ बिना शादी के एक दम्पति की तरह रहने लगते हैं,
मदिरा सेवन वहाँ के मौसम के हिसाब से जरुरी है, वहाँ तलाक ज्यादा होते हैं, एक चुटकुला याद आ गया आप भी सुन कर वहां की स्थिति से थोडा अवगत हो सकते हैं.
डेविड को उसकी पत्नी ने फ़ोन किया -"सुनो, हमारे घर में कोहराम मचा हुआ है."
डेविड-"क्यूँ क्या हुआ?"
पत्नी ने कहा-"तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे मिल कर हम दोनों के बच्चों को मार रहे हैं जल्दी घर आ जाओ.."
तो क्या आप भी ऐसी ही व्यवस्था अपने घर में भी चाहते हैं?
नही तो फिर ये पश्चिमी सभ्यता के पीछे क्यूँ भागना?
सीखना ही है तो किसी ने वहाँ के समय की पाबन्दी क्यूँ नहीं सीखी? वहां का यातायात नियम या साफ़ सफाई को क्यूँ नहीं अपनाया? सिर्फ बुराई ही अपनाने में आगे रहेंगे क्या हम लोग?
और रही बात हमारे भारतीय स्त्रियों के प्रतीक चिन्हों की तो वो मेरी नज़र में बेहद अहम् भी है, और अगर इसे नारी समाज नहीं मानता तो फिर पूरी तरह से न माने, ये मैं अपनी बात में आगे विस्तार से समझाऊंगा..
हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों का प्रतिक चिन्ह सिन्दूर, मंगलसूत्र, चूड़ी, बिछिया, आलता (महावर),नथनी, बाले आदि स्त्रियों की वेशभूषा में शामिल हैं और ये स्त्रियों की सुन्दरता को बढ़ाते भी हैं साथ ही सिंदूर व मंगलसूत्र जैसे चिन्ह उनके शादी शुदा होने की निशानी भी होते हैं.
मुझे इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती कि उनको ये चिन्ह शादी शुदा होने के तौर पर पहनाये गए हैं, अब औरतों का एक हाई प्रोफाइल तबका इन सबको औरतों कि दासता का प्रतीक चिन्ह मानता है,
भला ये साज सिंगर कि चीजें किसी कि दासता से कैसे सम्बंधित हो सकती है? मेरे दिमाग में ये बात नहीं घुसती, हाँ, इतना जरुर है कि उनकी इस बात में दम नज़र आता है कि अगर औरतों को ऐसे
प्रतीक पहनाये गए तो पुरुषों को क्यूँ नहीं? पहले के समय में औरतों को शादीशुदा होने पर कोई और मर्द हाथ भी नहीं लगाता था ऐसा सुना है, एक कोई फिल्म भी देखा था मैंने जिसमे एक कुंवारी लड़की घर से बाहर काम काज करने निकलती है तो उसे हर जगर घूरती आँखें और छेड़खानी का शिकार होना पड़ता था, एक दिन उसे पाता चला कि गले में मंगलसूत्र पहना देख कर लोग शादी शुदा समझ कर नहीं छेड़ते तो उसने भी बाज़ार से एक मंगलसूत्र खरीद कर खुद ही पहन लिया और सच में फिर उसे कोई नहीं छेड़ता था.. ये तो थी पहले कि बातें मगर आज के समय में इसकी कोई गारंटी नहीं रही..
रही बात पुरुषों की तो वो तो उनका ये तर्क होता है की जब पुरुष एक ही बीवी से इतना तंग रहता है दूसरी के चक्कर में पड़ेगा तो जी पायेगा क्या? ये तो बात को मजाकिया अंदाज में टालने वाली बात हो गयी मगर पुरुषों को कौन छेड़ेगी ? और अगर छेड़ भी दिया तो वो क्यूँ मना करने लगा ? पुरुष वैसे भी ज्यादा ही कामुक और उतावला रहता है और अगर उसके साथ जबरदस्ती किसी लड़की ने कर भी दी तो कौन उसका विश्वास कर लेगा और कौन सा थानेदार उसकी रिपोर्ट दर्ज करेगा? वैसे भी औरतों को ज्यादा शौक होता है सजने सवारने का, अब कुछ नवजवानों को भी ऐसा शौक हो चूका है और वो भी स्त्री पुरुषों के पहनावे के अंतर को कम करने में सहयोगी भूमिका निभाए जा रहे हैं.
और ये मेरा कटाक्ष नहीं है जो कोई स्त्री इसका बुरा मान जाये, मई उन्ही पहलुओं के बारे में लिख रहा हूँ जो ज्यादातर हमारे समाज में व्याप्त है, और ऐसा तो हरगिज नहीं हो सकता कि किसी भी बात का कोई अपवाद न हो, ये जरुर होता है कि हमे उसकी जानकारी नहीं होती. अतः नारी समाज इसे अन्यथा न ले कि उसे सजने सँवारने में पुरुषों से ज्यादा वक़्त लगता है, नारी सजती संवारती किसके लिए है? पुरुषों को दिखाने के लिए ही ज्यादातर जवाब होंगे लोगों के.. तो आज के युग में अगर लड़कियां सेक्सी कमेन्ट सुनना पसंद करती हैं और इसके लिए इतने कम और तंग कपडे पहनती हैं कि लड़कों का खुद पर काबू नहीं रहता तो इसमें क्या सिर्फ मर्द समाज ही दोषी है औरतें नहीं? मैं कारण कि तरफ आपका ध्यान दिखाना चाहता हूँ न कि ऐसे लड़कों कि तरफदारी कर रहा हूँ, कानून तोड़ने वाला कोई भी हो वो समाज में असंतुलन और अराजकता ही फैलता है और जाने कितनी लड़कियों कि पढाई इसी छेड़खानी की वजह से बंद हो गयी..
एक रेडियो उदघोषिका को मैंने कहते सुना था कि हम लड़कियों को भी अपने मन पसंद के कपडे पहनने का हक़ है, हक़ सभी को है मगर यदि आप समाज में बहार निकलते हुए अपनी मर्यादा लांघ रहे हैं तो इसके परिणाम के लिए पूरे मर्द समाज को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित है जब कि उसके मूल में कारण तो ऐसी लड़कियों के जिस्म दिखाऊ कपडे ही होते हैं. ऐसी लड़कियां फिल्मों से सिर्फ और सिर्फ फैशन कि शिक्षा ही लेकर आती हैं और वही अपनाने कि कोशिश करती हैं, फिल्म किस देश को केन्द्रित करके लिखी गयी इन सबसे उनको कोई लेना देना नहीं होता..
और औरतों को अगर सिंदूर, मंगलसूत्र, चूड़ी दासता का परिचायक लग रही है तो फिर उसे सोने चाँदी और हीरे मोतियों से जड़े जेवरात भी तो नहीं पहनने चाहिए..
ये तो अपने पति या प्रेमी को रिझाने के लिए उसने स्वीकार किया है, एक पुराना गीत याद आ रहा है --"सजना है मुझे सजना के लिए, ज़रा उलझी लटें संवर लूँ, हर अंग का रंग निखार लूँ की सजना है मुझे सजना के लिए.." इस गीत में एक नारी के मानसिक भावों को दर्शाया गया है कि कैसे वो काम से वापस लौटते हुए अपने शौहर को प्यार के बंधन में रिझा कर बंधने के लिए खुद को संवर रही है.. और यही हमारे समाज कि सच्चाई भी है कि औरतों का साज श्रंगार मर्दों के लिए ही होता है. उनका जीवनसाथी किसी और नारी कि तारीफ ना करे इसलिए वो खुद को उसकी नजरों में सुन्दरतम दिखाने के लिए घंटों बैठ कर मेहनत करती है अपने रूप को निखारने में..
और मुझे तो विश्वास है कि किसी को भी प्यार से ही हासिल किया जा सकता है, जोर जबरदस्ती से सिर्फ छद्म प्यार ही हासिल हो सकता है और कुछ नहीं..
ये महिला प्रतीक चिन्हों के विषय से पूरी तरह जुदा नहीं था तो अलग भी नहीं था क्यूँ कि अगर हम समाज में बिगड़ते व्यवस्था कि बाते करेंगे तो उसके कारण और परिणाम पर भी बहस जरुरी हो जाती है. और फिर आजकल कि लड़कियों ने तो लड़कों के बोलचाल को भी अपना लिया है मैं चाह कर भी ऐसे शब्दों को यहाँ पर नहीं लिख सकता, मगर ये तो देखना ही होगा न कि अगर समाज में बदलाव आ रहा है तो इसका आगे और क्या दुष्परिणाम हो सकता है? जरुरी नहीं कि इन लड़कियों को ऐसी बातों का असली अर्थ पता भी हो, लेकिन बस वो कहती हैं और लड़कों कि बोलचाल कि बराबरी करने के लिए उनके मुंह से अश्लील भाषा भी निकल रही है इस से वो अनजान हैं. जैसे एक दो आधुनिक मुहावरों पर अगर नज़र डालें तो इसमें औरतों को खरबूजा या म्यान की तरह बताया गया है और इसके अर्थ कई मायनों में तो होते ही हैं साथ ही अश्लीलता वाले अर्थ भी होते हैं. जैसे ये आपने भी सुना होगा कि खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर काटना तो खरबूजे को ही है, या औरत तलवार और मर्द उसकी म्यान की तरह होता है, दोनों को पानी में डुबाने पर म्यान तो पूरी भर जाती है लेकिन तलवार में सिर्फ कुछ बूंदें ही टपकती हैं..
इसी तरह कहीं मैंने सुना था कि धरती पर सिर्फ दो ही अनाज ज्यादा प्रचलित हैं गेहूं और चावल, इसमें चावल को मर्दों की निशानी और गेहूं को औरतों की निशानी के तौर पर बताया गया था बनावट के आधार पर..
इसी तरह मर्दों को पेड़ जबकि औरतों को लता या बेलरूपी पौधों के रूप में नारी समाज ने भी स्वीकार है.. अब अगर कुछ तथाकथित नारी समाज की हिमायती नारियों ने संगठन बनाकर औरतों को भी स्वक्च्छंद बनाने के लिए उसके अधिकारों की लडाई के नाम पर उन्हें घर से निकलने और अपना हक़ दिलाने के नाम पर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए नारी और पुरुष के बीच में खायी बना डाली है तो ये हमारे समाज के लिए घटक है और इस से सिर्फ और सिर्फ पारिवारिक विघटन ही फैलेगा, जिसे काम करना है उनको आप जरुर अधिकार दिलाएं मगर जो घर पर रह रही हैं उनको वहीँ रहने दें और घर पर अगर कोई समस्या आ रही है तो उसे दूर करें न की पुरुषों के खिलाफ जहर भरकर उनको बाद में एकाकी जीवन जीने पर मजबूर कर दें, और अगर औरत अकेली रहकर कहीं काम भी करती है तो भी उसे किसी न किसी रूप में पुरुष के सहयोग की आवश्यकता पड़ती ही है और यही हालत पुरुष समाज की भी है.. ये दोनों एक दुसरे के पूरक हैं ना कि प्रतिद्वंदी.
और अगर आप नारी को भी हर मामले में श्रेष्ट मानती हैं तो हर महीने के चार पांच दिन वो क्यूँ असहाए सी हो जाती है? क्यूँ उस पीरियड में वो फ़ौज कि भारती में दौड़ नहीं पति? क्यूँ नहीं आज तक उनको आपने अलग से परीक्षा देने का अधिकार दिलाया जब वो मासिक से ना गुजर रही हों? ये सवाल मेरे ही दिमाग में क्यूँ आया आप नारी समाज का ठेका लेकर हिमायती हैं तो इस दिशा में अब तक कुछ ना कुछ जरुर पहल हो चुकी होती, मैंने तो आज तक ऐसे किसी भी विषय पर जिक्र तक नहीं सुना. अगर नारी समाज को अधिकार दिलाना ही है तो सबसे पहले उनको इस धरती पर तो आने दीजिये, भ्रूण हत्या के लिए समाज को जाग्रत करने की सख्त जरुरत है, क्यूँ कि मुझे तो लगता है कि दस पंद्रह साल बाद विवाह के लिए लड़कियां इतनी कम पड़ने लगेंगी कि या तो बालविवाह की फिर से शुरुआत हो जाएगी या किसी अन्य देश की लड़कियों को भारत में बहू बनाकर लाया जायेगा.. और जब औरतें ही कम रह जाएँगी तो शादी उनकी मर्जी से होगी और दहेज़ मर्द देंगे, वरना वो खोजते रहें अपनी पसंद की लड़की और आजन्म कुंवारे बैठे रहें, ये किसकी देन है? क्या पुरुषों से ज्यादा माँ या सास रूपी स्त्री इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? जो एक नारी है?
और सिर्फ दहेज़ की रकम ना दे पाने की अक्षमता ही बेटों की चाह का कारण नहीं है, समाज में बढ़ते अपराध और औरतों की असुरक्षा भी इसमें शामिल है, कोई भी माँ बाप ये नहीं चाहता कि कल को
उनकी बेटी को कोई सड़कछाप मजनू छेड़े और बाद में बात मार पीट तक पहुँच जाये, ऐसे में वो खुद को बुढ़ापे में असहाए और सिर्फ बेटियों का बाप ही कहलाना पसंद नहीं करना चाहता,
तो ऐसे में जरुरत है कि सबसे पहले औरतों को कमतर समझना या ऐसा उनको एहसास दिलाना बंद किया जाये, फिर धीरे-२ समाज में परिवर्तन की धारा बहाई जाये, जिस से नारी पुरुष का असंतुलन संतुलित हो सके, बढ़ते पारिवारिक विघटन कम हों, कानून में परिवर्तन हो और वो आज के समाज को नियंत्रित करने लायक बने.
ये बात ही क्यूँ उठी जबकि ऐसा कुछ मर्दों के अन्दर नहीं था, और जो नारी या पुरुष खुद को श्रेष्ठ साबित करने में व्यर्थ ही उलझे पड़े हैं उनको पड़े रहने दीजिये, ऐसे तो जाने कितने ही विषय हैं और कितनी बातें कि सभी खुद को श्रेष्ठ साबित करने में लगे हैं..
जाते जाते सी विषय को भी खोलता ही चलूँ,
आदम और हव्वा के दुनिया को आबाद करने के बाद भारत में आये आर्यों में से ऋषि मनु जी ने आज कि जाती व्यवस्था को जन्म दिया ताकि लोग किसी भी काम को अगर पीढ़ी दर पीढ़ी करेंगे तो वो उस कार्य को करने में महारत हासिल कर लेंगे क्यूंकि पीढ़े दर पीढ़ी उनका परिवार उस कार्य की बारीकियों और नफे नुक्सान से अवगत हो चूका होगा.. उन्होंने उस समय के समाज को चार वर्णों में बांटकर उनको अलग अलग कार्य सौंप दिया, ब्राह्मण को शिक्षा, पूजा पाठ जैसे कार्य सौंपे गये, क्षत्रिय को देश की रक्षा के लिए तलवार थमा दी गयी, वैश्य को व्यापर और शुद्र को सफाई का काम सौंपा गया.. ये तो उन्होंने बनाया था की समाज व्यवस्थित हो सके और यहाँ पर हर कार्य का निपुण महारथी मौजूद हो, मगर हमने किया इसका उल्टा, हमने स्त्री पुरुष के जंग की तरह ही इसमें भी श्रेष्ट की जंग छेड़ दी, ब्रह्मण खुद को श्रेष्ट कहने लगा तो बाद में ब्राह्मणों में भी कई बंटवारे हो गए और इनमे भी निम्न कोटि के ब्राह्मण व उच्च कोटि के ब्राह्मण हो गए, इसी तरह बाकि के तीनो जातियों में भी हुआ, आज दशा ये है कि ना तो धोबी जाति वाले कपडे धोने में लगे हैं और ना ब्रह्मण पूजा पाठ में, तो ऐसे में जब हम अपने कार्यों से ही विमुख हो गए हैं तो जरियों का औचित्य ही नहीं रह गया वर्तमान समाज में. मुस्लिम भाइयों में भी सिया और सुन्नी का बंटवारा हो गया तो ईसाई भाई भी दो भागों में बनते हुए हैं और जो धर्म के आधार पर नहीं बनते वो गोरे और काले के रंग में बाँट गए.. इन सबका परिणाम क्या है? जंग और खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दुसरे को नीचा दिखाना..
तो ऐसे लोग जो इस तरह कि श्रेष्ठता को उचित मानते हैं मेरा एक सलाह जरुर अपनाये कि अब से वो अपनी एक आँख ना खोला करें जिसे वो निम्न वर्ग का समझते हैं, साथ ही एक हाथ, एक कान, एक पैर भी त्याग दें, क्यूँ कि अगर उनका यही मानना है तो पहले खुद में ये श्रेष्ठता साबित करें उसके बाद दुनिया को समझाने निकलें.
मेरी आदत है कि किसी विषय के हर पहलु को ध्यान में रख कर लोगों तक अपनी बात पंहुचाना, इसमें कहाँ तक सफल हुआ हूँ ये तो आपसबकी प्रतिक्रिया ही बताएगी..
अगर कुछ ज्यादा बोल गया या किसी के ह्रदय को ठेस लगी हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ.
--गोपाल के.
सोमवार, 16 अप्रैल 2012
सिनेमा के सौ साल में परिवर्तन की धारा
1913 में भारत में पहली फिल्म ''राजा हरिश्चंद्र'' प्रदर्शित हुयी थी,
जिसे डी. जी. फाल्के ने निर्देशित किया था और इसमें डी.डी.दबके, सालुंके,
भालचंद्र फाल्के आदि ने भूमिका निभाई थी.
उस ज़माने में बोलती फिल्मों का जन्म नहीं हुआ था और ये शैशवावस्था में
अपने आज के चकाचौंध भरे स्वरुप को अपने आसपास कहीं भी नहीं देख पा रही थी..
ये वो जमाना था जब अभिनेत्री की भूमिका भी मर्दों को ही निभाना पड़ता था.
तमाम परेशानियों के बीच किसी तरह खुद का विकास करते हुए लोगों का मनोरंजन
करके खुद को स्थापित करने की कोशिश कर रहा था..
उस जमाने में फिल्मों को अच्छे घर की लड़कियों का काम नहीं माना जाता था तो शुरू में कुछ
तवायफों को भी अभिनेत्री की भूमिका करने का मौका दिया गया..
अंग्रेजों का राज होने की वजह से उस वक़्त की फिल्मों में अंग्रेजी का असर भी देखा जा सकता था.
तब लोग बस यही देखने टाकीजों में जाते थे की वहां उन्हें बोलती हुयी तस्वीरें दिखाई देंगी,
जो उस ज़माने में बहुत ही कौतूहल का विषय हुआ करता था.
राजा सैंडो, हिमांशु राय, गौहर, इ. बिलिमोरिया, सुलोचना और कपूर खानदान के
पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकार उस वक़्त लोगों का मनोरंजन कर रहे थे.
फिर 1931 में जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो फिर फिल्म इंडस्ट्री ने सही रफ़्तार पकडनी शुरू की,
क्यूँ कि भारतीय सिनेमा गीत-संगीत के बिना अधूरी है, और मूक फिल्मों के बाद अब लोगों को कहानी के साथ ही
नए तरह के गीतों का भी शौक चढ़ने लगा..
"आलमआरा" फिल्म इतिहास कि पहली बोलती फिल्म बनी और इसको निर्देशित करने वाले अर्देशिर ईरानी के साथ ही
इस फिल्म के मास्टर विट्ठल, जुबेदा, पृथ्वीराज आदि भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए. फिरोजशाह मिस्त्री और
बी. ईरानी ने इस फिल्म में पहला संगीत हिंदी फिल्म के लिए दिया था..हालांकि 1934 तक मूक फिल्मे बनती रही लेकिन
सिनेमा के एक नए रूप ने लोगों को आकर्षित करके अपनी तरफ खीचना शुरू कर दिया था.
उस वक़्त के. एल. सहगल साहेब के गीतों की ही बहार छाई हुयी थी, उनके बाद आये गायकी के तीन
महान दिग्गजों ने उनकी ही स्टाइल कॉपी करके खुद को स्थापित किया था और बाद में अपनी अलग
शैली में पहचान बनायीं. जी हाँ, मैं मो. रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार जी की बात कर रहा हूँ.
दादामुनि अशोक कुमार इंडस्ट्री में आये तो अपने साथ एक महान गायक, अभिनेता, निर्देशक किशोर कुमार के साथ-साथ
अपने तीसरे भाई अनूप कुमार को भी खंडवा से मुंबई का रास्ता दिखा दिया.
किशोरे जी के बचपन की एक बात याद आ गयी, एक बार शायद उनको कोई घाव या बीमारी हो गयी थी जिस से
वो इतने परेशां रहते थे की दिनभर जोर-2 से चिल्लाते हुए रोया करते थे, मुझे लगता है कि शायद इसी से उनका गला
विशेष हो गया था क्यूँ कि मैंने सुना है कि उन्होंने संगीत कि कोई भी शिक्षा नहीं ली थी.
पृथ्वीराज कपूर जी ने अपने तीनों बेटों राज कपूर- जो शोमैन के नाम से इंडस्ट्री में मशहूर हुए,
शम्मी कपूर- जिन्होंने अपने मस्ती भरे अंदाज़ से लोगो में अपनी अलग जगह बनायीं,
और शशि कपूर- जो भारत के साथ ही हॉलीवूड कि फिल्मों में भी अभिनय करके अपनी
पहचान बनायीं. राजकपूर जी के तीनों बेटों ने भी अपने दादा के काम को आगे बढाया.
रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं.
लेंकिन शशि कपूर के पुत्रों कुणाल कपूर और करण कपूर के साथ पुत्री संजना कपूर वो छाप छोड़ने में असफल रहे.
शायद उसका एक कारण उनकी मान जेनेफिर का विलायती होना रहा हो जिस से उनके तीनो बच्चों के चेहरे
भारतीयता से दूर नज़र आते थे. हो सकता है कि आज के दौर में वो बेहद सफल होते जब विदेशी बालाएँ यहाँ आकर
हिट फ़िल्में दे रही हैं. असल में तब के लोगों में सिर्फ भारतीय फिल्मों का ही एकमात्र शौक हुआ करता था और आज की
पीढ़ी हर जगह की बनी फ़िल्में देखना पसंद करती है. तभी तो अब हॉलीवूड की तरह यहाँ भी सिक्वेल फिल्मों का दौर शुरू हो चूका है,
खिलाडी, गोलमाल, हेराफेरी, क्या कूल हैं हम, मर्डर , धूम, जन्नत, हाउसफुल आदि इसका तजा उदाहरण हैं .
जबकि सन्नी देयोल ने नागिन की सिक्वेल निगाहें बनायीं तो वो बुरी तरह पिट गयी थी.
ये आजकल के बदलते दर्शकों के रुझान का ही परिणाम है जो सदा से परिवर्तन चाहता है.
और अब तो हालत ये है कि छोटे बजट की भेजा फ्राई, कहानी, पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्में
बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कलेक्शन कर ले जाती हैं. अब फ़ॉर्मूला फिल्मों का दौर नहीं रहा,
दर्शक कुछ नया देखना चाहते हैं और सिनेमा के बदलते स्वरुप को मॉल संस्कृति ने नयी राह पर
ला खड़ा किया है.
1930 से 1940 तक धार्मिक और सामाजिक फिल्मों का दौर रहा, फिर आज की ही तरह वर्तमान
समय की मांग पर फ़िल्में बनने लगी.सुरैया, मुबारक व शमशाद बेगम, लता मंगेशकर,
आशा भोंसले, हेमंत कुमार, मन्ना डे, सुमन कल्यानपुर जैसे दिग्गज जहां अपनी आवाज़ का जादू बिखेर रहे थे
वहीँ वी. शांताराम, सत्यजीत रे, महबूब खान आदि ने फिल्मों में नए प्रयोग किये.
नौशाद, मदन मोहन, सलिल चौधरी, रवि, लक्ष्मी कान्त-प्यारेलाल, एस.डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सी. रामचंद्र
आदि मधुर संगीत डे कर लोगों को झुमा रहे थे.. कविवर प्रदीप वहाँ भी देशभक्ति की अलख जगा रहे थे अपनी कलम से.
आजादी के दीवाने भला कहाँ रुकने वाले थे? उन्होंने सबसे अच्छा माध्यम फिल्मों को देखा और
"दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है.." के जरिये अहिंसात्मक तरीके से
अंग्रेजों भारत छोडो का नारा गुप्त तरीके से बुलंद किया.
फिर 1950 से 1965 -70 तक का समय संगीत का स्वर्णिम दौर कहा जा सकता है, उस दौर में ऐसे बेहतरीन
गीत संगीत बने जो आज तक तरोताजा हैं. फिर दौर आया डाकुओं पर aadharit फिल्मों का,
शोले ने ऐसा इतिहास रचा जो खुद में इतिहास बन गया. राजकपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजेश खाना- जो पहले सुपर स्टार कहलाये,
मनोज कुमार-जो देशभक्त फिल्मों से जाने जाते हैं, राजकुमार, अमिताभ बच्चन-जो सदी के महानायक हैं, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र, सुनील दत्त,
सन्नी देयोल, अनिल कपूर संजय दत्त से होते हुए आज आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख़ खान, अक्षय कुमार, शहीद कपूर,
जान अब्राहम, ऋतिक रोशन, अभिषेक कपूर जैसे अभिनेताओं ने अभिनय की बागडोर संभल राखी है..
वहीँ अभिनेत्रियों में सुरैया, मधुबाला, नर्गिस, वहीदा रहमान, शर्मीला टैगोर, राखी, रेखा, हेमा मालिनी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, काजोल
जैसी तमाम अभिनेत्रियों की विरासत अब करीना कपूर, कटरीना कैफ, विद्या बालन, प्रियंका चोपड़ा, ऐश्वर्या राय आदि संभाल रही हैं..
यहाँ पर मैं बहुत सरे ऐसे नामों को नहीं लिख सका जो आपके पसंदीदा हैं, ये ऐसा लेख नहीं जिसमे सभी मशहूर फिल्म हस्तियों का नाम दिया जा सके
जो भी नाम गलती से रह गए हैं उसके लिए आप क्षमा करें. फिल्म इतिहास के सौ साल अगले साल होंगे तब जो लेख लिखूंगा उसमे उन सभी का जिक्र होगा
बस शर्त ये है कि आप बोर मत होना उतने सारे नामों और फिल्मों के बारे में पढ़ कर..
बीच में 1980 -1989 तक मिथुन दा वाला जमाना था जिसमे एक तरफ वो, गोविंदा जैसे डांसर के साथ फिल्मों में डांस करते नज़र आ रहे थे
वही दूसरी तरफ रजनीगंधा, गोलमाल जैसे छोटे बजट कि फिल्मो वाले अमोल पालेकर, या उमराव जान के फारुख शेख,
मंडी व मासूम के नसीरुद्दीन शाह, कला फिल्मों में भी अपनी छाप छोड़ रहे थे,
उस वक़्त का दौर शोरगुल वाले संगीत का हो गया था जिसे 1989 के बाद महेश भट्ट की "आशिकी" और
राजश्री वालों की "मैंने प्यार किया" ने मधुर संगीत के दौर को ला कर एक नए ही युग का आरम्भ किया..
इसके बाद हिमेश रेशमिया ने रिमिक्स संगीत का ऐसा जमा पहनाया कि उनके सैड सोंग भी रिमिक्स हो गए.
अब का जमाना बिलकुल ही अलग है और अब नयी तरह की प्रयोगधर्मी फ़िल्में बननी शुरू हो चुकी हैं
जिसमे मनोरंजन के साथ ही अच्छे सन्देश के साथ-साथ कुछ फिल्मों में इमरान हाश्मी द्वारा निभाई गयी ग्रे कलर की भूमिकाएं भी हैं,
यानी देखने वाला ये समझ ही नहीं पता कि ये हीरो है या विलेन?
मेरा सुझाव है कि फ़िल्मकार अगर खाने वाले पैकेट में मांसाहार में लाल निशान व
शाकाहारी के लिए हरे निशान का इस्तेमाल करते हैं इसी तरह वो भी जो फ़िल्मी पात्र दर्शकों के
अनुकरण योग्य हों उन्हें अलग निशान डे सकते हैं, लोगों को पता ही नहीं कि फिल्मों में क्या सीख दी जा रही है और क्या सिखाया जा रहा है,
वो तो ''धूम'' देखकर बैक के नए खतरनाक स्टंट करने लग जाते हैं, ''बंटी और बबली'' से ठगी या
अंधों द्वारा बैंक डकैती दिखाने पर डकैती सीख जाते हैं..
इसलिए इसमें भी कुछ अलग से मानदंड रखने पड़ेंगे वरना लोग सही शिक्षा की जगह गलत ही सीखते रहेंगे.
हाँ, तो ये था हल्का सा झरोखा फिल्म इतिहास का जो मैंने आपके समक्ष रखा..
थोड़ी बहुत जानकारी थी जो आप सबमे बांटना चाहता था , उम्मीद है की पसंद आया होगा.
जो भी हो आप अपने अमूल्य विचार पोस्ट कर के मुझे जरुर अवगत करवाएं जिस से आगे और बेहतर लिख सकूँ.
---गोपाल के.
शनिवार, 14 अप्रैल 2012
कहानी- संस्कार Kahaani- Sanskaar
एक छोटी बच्ची ने बड़े ही उत्सुकतावश माँ से पूछा-
"माँ माँ, ये शर्म क्या चीज़ होती है?"
माँ हंसी और मुस्कुरा के जवाब दी- अरे बिटिया ये कोई चीज़ नहीं, औरत का गहना होती है."
बच्ची ने माँ का मंगलसूत्र पकड़ते हुए पूछा - "क्या इसे शर्म कहते हैं?"
"ना बेटी, ये तो औरत के सुहाग की निशानी होती है."
ये जवाब सुनकर बेटी ने फिर माँ के माथे पर लगे सिंदूर की तरफ इशारा कर के पूछा-
"तो इसे कहते होंगे. हैं ना माँ ?"
"ना रे, तू तो अभी बच्ची है,
शर्म होती है लाज, हया,
तू ऐसे समझ,
जब कोई अजनबी मेहमान हमारे घर आता है
तो तू कैसे परदे के पीछे छुप कर उनको देखती है
और बुलाने पे भी उनके पास नहीं आती.. "
बेटी ने माँ को बीच में ही टोका -
"पर वो तो मुझे डर लगता है ना उनसे,
तभी नहीं जाती उनके पास.."
माँ मुस्कुरा के बेटी के सर पर हाथ फेरती हुयी बोली-
"हाँ, तू इसे डर का नाम दे सकती है..
लेकिन असल में ये तेरी शर्म ही है
जो बड़ों का सम्मान, संकोच, थोडा सा डर और
हम औरतों के स्त्रीत्व की पहचान होती है"
"पर तुम तो मुझे किसी से भी डरने से मन करती हो, भूत से भी नहीं..
फिर डरना क्यूँ सिखा रही हो ?''
"ये डर असल में डर होते हुए भी एक जरुरी हिस्सा होता है सभी इंसानों के लिए ,
अगर इंसान को उपरवाले का डर ना हो तो वो खुद को ही भगवान् समझने लगेगा
और ना जाने कितनो को अपना राक्षसी रूप दिखा के लूटेगा ,
अगर बच्चों को बड़ो का डर ना हो तो वो गलत रस्ते पे चले जायेंगे
और बाद में उनके ठोकर खाने पे उसके माँ बाप को ही ज्यादा दुःख होता है ,
तभी तो मैं तेरी दादी के सामने ज्यादा नहीं बोलती और सर झुकाए घूंघट किये खड़ी रहती हूँ ,
ये उनका सम्मान है तभी तो देख हम सबको दादी कितना प्यार करती हैं..''
''ह्म्म्म, और अगर मैं अपनी सास के सामने तुम्हारे जैसे घूँघट ना करू तो ?''
बच्ची ने दोनों भ्रकुटियों में हल्का सा तनाव ला कर पूछा तो उसकी माँ ने प्यार से समझाया -'
'तो ये तेरी मर्जी, लेकिन उनका सम्मान रखना, कहा मानना , सेवा करना मत भूलना ..
क्यूँ कि तुझे मैं जिंदगीभर के लिए जो दे सकती हूँ वो है संस्कार ,
जो मैंने अपने माँ बाप से सीखा और यही संस्कार हमेशा तुझे
मेरी बेटी होने का एहसास गर्व से दिला सकता है ..
आजकल देख रही है ना ! कैसे माँ बाप हो गए हैं जो खुद तो गलती करते हैं
बच्चो में भी गलत संस्कार डाल रहे हैं .
इस से पूरी की पूरी पीढ़ी का परिवार बर्बाद हो रहा है ..''
बेटी ने तपाक से कहा -
''नहीं माँ मै अपना परिवार कभी नहीं बिखरने दूंगी ,
सभी बड़ों का सम्मान करुँगी ,
और हर जगह आपका नाम रोशन करुँगी ..
मुझे मेरा जेवर मिल गया माँ ..!''
ये कहते हुए बेटी ने जैसे ही शरमाकर
नज़रे नीची कर के सिर को झुकाया
माँ ने अपनी बेटी को गले से लगा लिया
और प्यार से उसके माथे को चूम लिया.
---गोपाल के.
लेबल:
कहानी,
संस्कार.हिंदी
सदस्यता लें
संदेश (Atom)