रात का समय था फ़िर भी चारो तरफ़ बाढ़ के पानी का भयानक और डरावना शोर था।
भिखुआ रात से पेड़ के ऊपर बैठा हुआ था, उसके बगल में ही पंडित जी भी बैठे थे पेड़ की डाल पर।
गाँव तो अब दिखता ही नहीं था, केवल मकानों के छप्पर और बड़े-बड़े पेड़ों की ऊपरी डाल ही नज़र आती थी। और नज़र आता था तो बिजली के उन खंभों का तार जिनमे बिजली तो आती नहीं थी पर बिल जरुर आता था।
तभी अचानक पेड़ पर ऊपर कुछ सरसराता महसूस हुआ, नीचे झाँक कर देखा तो एक सांप नज़र आया। शायद वो बेचारा भी अपनी जान इस पानी से बचने के लिए ऊपर चढ़ा आ रहा है, यही सोच कर भिखुआ ने थोड़ा सांप रास्ता दे दिया.
सांप ऊपर आकर उसके बगल में बैठ गया। वो ख़ुद भी सहमा दिख रहा था तो किसी को क्या काटता? पंडित जी नींद में थे पर इतने शोर में सो कैसे पाते ? सो वो ऊँघ रहे थे वरना अभी चिल्ला पड़ते सांप-सांप.
अचानक धडाम की आवाज से मैं सहम गया, ललुआ के मकान की दीवार ढह गई थी ये उसीके गिरने की आवाज थी॥
पंडित जी भी उठ गए और देखने लगे इधर उधर.
जब भिखुआ के साथ सांप देखा तो इशारे से बोले तेरे पीछे सांप है. भिखुआ बोला कोई बात नही, मुझसे पूछ कर बैठा है।
पंडित जी मुस्कुरा दिए।
भिखुआ के पास थोड़े चने थे, वो अपनी गठरी निकाल कर खाने को हुआ।
पर साथ में कोई और भी भूखा हो तो अकेले कैसे खा ले?
सो उसने पंडित जी से पूछा की वो खायेंगे?
पंडित जी भूखे तो थे मगर एक छोटी जाति वाले के हाथ से कैसे खा लेते?
लेकिन दो दिन से पेड़ पर भूखे बैठे थे टंगे हुए से.. और कोई चारा भी नही था।
फ़िर उन्होंने सोचा की खा लेते हैं कौन यहाँ पर देख रहा है? क्यूंकि अब भूख जवाब दे रही थी।
सो उन्होंने भिखुआ के साथ वो चने खा लिए और दोनों की भूख काफी हद तक शांत हो गई॥ और जहाँ पेट में थोड़ा अन्न जाता है फ़िर नींद भी आ ही जाती है।
तो दोनों ही सो गए और सांप बेचारा उन दोनों को देखता रहा और एक तरह से पहरा देता रहा।
सुबह चिडियों की आवाज़ ने उन दोनों की नींद खोली॥ देखा तो दूर से गाँव के लड़के केले के तने का बेडा (एक तरह का नाव) लिए उनकी तरफ़ ही आ रहे थे..पंडित जी ने शोर मचाया और जिसे सुनकर लड़के इसी तरफ़ आ गए।
जैसे ही बेडा पास आया पंडित जी लपक कर उसमे सवार हो गए और आदेश देते हुए बोले-" चलो रे॥"लड़को ने पूछा भी की क्या भिखुआ को नही लेंगे?
वो बोले दूसरी बार में ले लेना॥और चल दिए..बेडा दूर जा चुका था.. भिखुआ और सांप साथ बैठे उसे जाते देख रहे थे।
भिखुआ सोच रहा था की शुक्र है सांप में जाति प्रथा नही है।
और सांप सोच रहा था अच्छा हुआ मैं मनुष्य नही हूँ।
--गोपाल के।
मंगलवार, 26 अगस्त 2008
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5 टिप्पणियां:
वाह भाई......बड़ी गहरी बात,झूठी जाति ,नाटक ही नाटक!
किसे दिखाना और क्या ? समाज के इसी रवैये से मुझे
घृणा है, इंसानियत को परे करके चलता है........
सांप !
अज्ञेय की पंक्तियाँ हैं ना-
'सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं
शहर में बसना भी तुम्हे नहीं आया
एक बात पूछूँ, उत्तर दोगे?
किस्से सीखा डँसना विष कहाँ से पाया???????????
hi
you r very creative.
really nice thoughts
keep it up
thanxxxxxxxxx
bahot khub likha hai.
samprat samaj ka sahi darsan karaya hai.
aise hi likhte raho, meri subh kamnaye tumhare saat hai.
भिखुआ सोच रहा था की शुक्र है सांप में जाति प्रथा नही है।
और सांप सोच रहा था अच्छा हुआ मैं मनुष्य नही हूँ।
maza agaya padhke..
good work
Abha
last two lines r really v. good.
muje to lagta hai ye story "bhikhua ki" school ke pathay pustak me leni chahiye.
congretes
aur nayi story ka intezaar rahega.
keep it up
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